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________________ ५५ जैन ज्योतिर्लोक जंबूद्वीप की वेदो से प्रथम सूर्य का अन्तर ४६६EEP योजन है तथा सूर्य का बिंब १६ योजन का है । इस सूर्य की प्रथम गली से दूसरे सूर्य को प्रथम गली का अन्तर EEEEEयोजन है एवं यहां भी प्रथम गली में सूर्य बिंव का विस्तार योजन है। इसके आगे लवण समुद्र की अन्तिम वेदी तक ४६६६६ , योजन है यथा- ४६६६E+E REEEER 15-1 ४६६६६-२००००० । ऐसे २ लाख योजन विस्तार वाला लवण समुद्र है । १-१ गमन क्षेत्र में सूर्य को १८४-१८४ गलियां एवं चन्द्रमा की १५-१५ गलियां हैं प्रत्येक मूर्य आमने सामने रहते हुये ६० मुहूर्त में १-१ परिधि को पूरा करते हैं। जंवूद्वीप के समान ही वहां भी दक्षिणायन एवं उत्तरायण की व्यवस्था है । अन्तर केवल इतना ही है कि-जंबूढोप को अपेक्षा लवण समुद्र की गलियों को परिधियां अधिक-अधिक बड़ी हैं। अतः मूर्य चन्द्रादिकों का मुहूर्त प्रमाण गमन क्षेत्र भी अधिकअधिक होता गया है। धातकी खण्ड के सूर्य चन्द्रादि का वर्णन . धातकी खण्ड का व्यास ४ लाख योजन का है। इसमें १२ सूर्य एवं १२ चन्द्रमा हैं । ५१०४६ योजन प्रमाण वाले यहां पर ६ गमन क्षेत्र हैं । एक-एक गमन क्षेत्रों में पूर्ववत् २-२ मूर्यचन्द्र परिभ्रमण करते हैं। जंबूरोप के समान ही इन एक-एक गमन क्षेत्रों में सूर्य की
SR No.010244
Book TitleJain Jyotirloka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMotichand Jain Saraf, Ravindra Jain
PublisherJain Trilok Shodh Sansthan Delhi
Publication Year1973
Total Pages152
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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