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________________ दरिद्रना हो सारी आपत्तियों की मूलहै और इससे जन संख्या का नाश होता है। (देखो देशदर्शन पृष्ठ ३८) किन्तु हमारे कुछएक मित्र अवश्य ही जैन समाजके सम्बन्ध में निर्धनता वा दरिदता का नाम सुन कर चौंक उठगे। उन की दृष्टि में जैन जाति सर्व जातियों में धनशाली है । क्योंकि उसकी वाहिरदारी अर्थात् दिखलावे को जितनी बाते है वह सब इसो यातको सम्भावना कराती है कि जैनी बड़े धनी हैं। परन्तु अब बात बिलकुल उलटी है। निर्धनता वा दरिद्रता में बुद्धि हीन होजाती है और अपने दोप को-अपमान को छिपाने के लिए दरिद्ध व्यक्ति ढोंग रचता ही है। यही हालत जैन समाज की है। यद्यपि यह अवश्य है कि कतिपय खास व्यक्ति अवश्य ही धनशाली मिलेंगे। परन्तु समन जाति को इनके कारण धनशाली नहीं कहा जा सकता। जैनी निर्धनी हैं इस का प्रत्यक्ष प्रमाण उनको जनसंख्या का ह्रास, उनकी दुर्बलता और उनके पीले मुख हैं। जैनी ही नहीं प्रत्युत सारे भारतपासी इस सर्व घातक रोग से पीड़ित हैं। इसी निर्धनता के कारण प्राज इस कृषि प्रधान और पशु धन में गर्व रखने वाले देश में समाज को पुष्टकारी भोजन नहीं मिलता । जीवन पालन के मुख्य पदार्थ घी और दूध का तो अभावसा ही हो रहा है। उस के अभाव में शरीर दुर्बल हैं। और वे शीघ्र ही रोगों के शिकार बन जाते हैं। जिन से धन के अभाव में छुटकारा भी सहसा नहीं मिलता। हां, यह अगश्य मानना पड़ेगा कि हिन्दू और मुसलमानों की अपेक्षा जैनी धनवान अधिक है। इसलिए इस कारण से उनको क्षति अधिक होने की संभावना नहीं की जा सकती। किन्तु जरा गम्भीर विचार करने से विदित हो जाना है
SR No.010243
Book TitleJain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherSanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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