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________________ (१६) ही कहा जायगा। वृक्ष जगत पर यदि हम दृष्टि डालतो हम सहज में इस नियम का अनुमान कर सकते हैं । दो मुकाबले के पाग ले लीजिये । 'सुन्दर वनस्पतियाँ, नाना प्रकार के अनोखे फल और पत्तियां और कोमल लतायें लाखों रुपयों के खर्च से दोनो ही बागों में लगाई गई हैं। एक बाग की पत्तियाँ मुभा रही है लतायें कुम्हलाई जाती है, और दूसरे में ठोक वही वनस्पतियां हरीभरो सहरा रही है और लताय कोठी का कंगूरा छूना चाहती है । क्यों ? इसलिये कि एक धाग में उनकी रक्षा ठोक तरह पर नहीं की जाती, समय पर जल और बाद पाटि नहीं दिया जाता और दूसरी जगह इन सब पानों का अच्छा प्रबन्ध है । पुग्पप्रदर्शिनी और पुष्पपारितोषिक ( Flower shows reflower p11739 ) इस बात को सिद्ध करते है कि जिवनी अधिक देखभाल वनस्पतियों की होगी वे उतनी ही पुष्ट रोगी और बैले ही बड़े फल या फल देगी । । प्रकृति ने मनुष्यमान की उन्नति भो पूर्वोक्त नियम के अधीन रमवी है । मनुष्य का दीर्घायु या अल्पायु होना, श्राराग्य या रोगा होना,बलवान या निर्वल होना भिन्न भिन्न देशों की अच्छी या बुरी आयोहया पर, अच्छे या बुरे आहार पर और पुण्य या पापमय जीवन व्यतीत करनेपर निर्भर है।' (देखो देशदर्शन पृष्ठ ६२-६३)श्रितएव जैन समाज की इस कारण वश द्वास की अपेक्षाकर कहना होगा कि वह प्राकृतिक नियम के विरुद्ध आचरण करती है। देश की आबोहवा करीब करीब एकसी है परन्तु तो भी वह शहर और देहातोंकी अपेक्षा कृन भिन्न है। देहातों का जीवन सुखकर हो सकता है। और जैनो देहातों में रहना अब ठीक नहीं समझते, और वे वहां पनिस्वत शहरों के कम ही है । जैसे की अगाड़ी भात होगा।
SR No.010243
Book TitleJain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherSanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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