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________________ (११) ओर किये नायगा तो पिछले बुरे कर्म के मन्द होने पर अवश्य सफल मनोरय होगा। अतएव परुषार्थ करते रहने से यद्यपि किसी निश्चित समय में सफलता प्राप्त न हो परन्तु वह एक समय प्राप्त होतो अवश्य है। (देखो जैन कर्म फिलासफी) इसलिये पुरुषार्थ करना प्रत्येक दशा में आवश्यक है। पुरुषार्थ के बल हो तकदीर काअस्तित्व है। इस कारण भवितव्यता के भरोसे बैठना बुद्धिमत्ता नहीं कही जा सकती है। अतएव जैन समाज का जो हास उसमें योग्य मनुष्य गुण न होनेके कारण हो रहा है उसके रोकने में अवश्य ही हमें पुरुषार्थ शील हो कटिबद्ध हो जाना चाहिये। तव ही वह पंचमकाल के अन्त तक जीवित रह राकती है। ओर अपनो प्राचीन गौरवगरिमा पुनः प्राप्त कर संसार को सुखशांति का संदेश सुना सकती है भवितव्यता का निराशाजनक ढकोसला उसके मग मे बावक नहीं होसकता। निरुत्साही निराशा के पंजे से प्रत्येक जैनी को उन्नति करने के लिये निकलना अत्यावश्यक है। अस्तु अव देखना है कि क्या कारण है जिनके वश जैनियों में मनुष्य गुणों का अभाव है ओर उनमें वह नर रत्न नहीं है जो उनके सामा. जिक जीवन को उन्नत बनाने में सहायक होते ? आज जैन समाज को दशा पर ए डालते ही आँखों अगाडी अँधेरा छा जाता है। उसकी जनसंख्या और उसके निछानों को गणना करते हो हृदय र जाता है। विस्मय होता है कि किस तरह जैनधर्म प्राचीन काल में भारत का राष्ट्र धर्म रह चुका है। श्राज तो वह नाम मात्र को अवशेष है। न उसके अनुयायियों में आज कोई राजा है,न सैनिक है, और न सेनापति । न पेले ही कार्यपटु निद्वान है जो गज
SR No.010243
Book TitleJain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherSanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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