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________________ (५) प्राप्त हुना था । (देखो नत्र चूडामणि काव्य)। परन्तु अपनो विदेश यात्रा से वे सर्व वणों की कन्याओं को उसी सॉति गृहण कर लाए थे जिस भांति चक्रवर्ती लोग सर्व चपों में से ही नहीं प्रत्युत म्लेच्छों में से भी कन्याय ले नाते थे। भान यह है कि शन्तिम तीर्थंकर के समय तक श्रोर उपरान्ततक प्राचीन रीति रिवाज चालू थे। परन्तु ज्यार विदेशियों के नाममण होते गए और लोगों को अपने जीवनों की रक्षा करना भी दूभर हुई त्यो २ वह उनसे दूर हटते गए। अन्त में एक समय ऐसा पाया कि प्राचीन रीति रिवाजों का लोगों को भान ही न रहा । और लोग जहाँ तहाँ टोली बाँध बांध अपने २ स्त्रीशन रिवाजों की रक्षा करते रहे। उन्हें अपने अन्य पड़ोसी साधर्मों भाइयों के व्यवहारों से परिचय ही न रहा । यह खास कर मुसलमानी समय में हुआ। और जहाँ २ मुसलमानों का आधिपत्य दीर्घ काल तक अच्छी तरह से रहा नहाँ २ प्राचीन रोति रिवाज विल्कुल ही लुप्त होगये। इस व्याख्या की पुष्टि में उत्तर और दक्षिण की जैन समाज के रीति रिवाज प्रत्यन प्रमाण है। दनिण में मुसलमानों की दस्तन्दाजी कम हुई। इसी कारण वहाँ शालों में वर्णितप्राचीन रिवाजाकी भलक मिलता है। अतः इस कथनसे यह प्रकटहै कि प्राचीन जैन रिवाजों में समयानुसार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के प्रभावानुसार परिवर्तन होते रहे है और उसमें प्रख्यात राजा महाराजा भी होते रहे है । सम्राट् चन्द्र गुप्त जैन थे। यह समय भारत के अधिपति थे। अतपच इनके समय में अवश्य ही जैनधर्म राष्ट्र धर्मरहारोगा।सम्राट अशोक, सम्प्रति, स्वारवेल, कुमारपाल, कुम्म, अमोघवर्प आदि नृप जैन ही थे। जैनियों में चामुण्डराय, असराज सदृश योद्धा थे। भामाशाह
SR No.010243
Book TitleJain Jati ka Hras aur Unnati ke Upay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherSanyukta Prantiya Digambar Jain Sabha
Publication Year
Total Pages64
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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