SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्वार्थ-त्याग व मानसिक पवित्रता की आवश्यकता होती है वह इससे मिल नहीं सकती। लूर्तिपुजा की विचित्रता। यद्यपि मूर्तिपूजा जैनधर्म के सिद्धान्तों के विरुद्ध है तो भी इस अशुद्ध पूजन मे भी मूर्तिपूजकों की मूर्ति संबंधी कृति लिकुल ही असंगत है। वे तीर्थंकरों पर रागद्वेषादि मानसिक वृत्तियों और दोपों को आरोपित करते हैं परंतु तीर्थकर संसार के समस्त झंझटों से परे थे। तीर्थकरों को सर्वोश आदर्श मान कर उनका कनुकरण करने की जगह वे उनको अपने कर्मों का न्यायकर्ता समझते हैं। वे, त्यागी तीर्थकर और अन्य मतावलम्बियों के देवताओ में जो कि उनके भक्तों की पूजा व खुशामद से प्रसन्न होकर भक्तो की भक्ती के प्रमाण से अनुग्रह करते हैं, कुछ भी भेद नहीं समझ सकते। ___एफ पुत्र प्राप्ति के लिए मूर्ति को प्रणाम करता है तो दूसरा धन के लिए व तीसरा अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिये । इस प्रकार हर एक अपन स्वार्थवश मूर्ति की पूजा करता है। हमारे देखने में कई बार आता है कि फई लोग तीर्थफरों की अपने सामारिक इच्छाओं की पूर्ति फे लिए माननाएं परते हैं और उनके नाम पर जहां तक उनकी पूछा पूरी न हो जाय यहां तक किनी न किसी
SR No.010241
Book TitleJain Itihas
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages115
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy