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________________ नये गुणोकी प्राप्तिकेलिये तो कहनाही क्या ? [ जहां गांठकी मुं. डीभी गुमजाती है तो नया लाभ होनेकी आशाही कहांसें होय !] ऐसा समझकर सुज्ञ जन अपने मुख से अपनी बडाइ वा दूसरेको लघुता करतही नहि. ६१ मनमेंभी हर्ष नहि ल्याना. 'बहु रत्ना वसुंधरा' पृथिवीमें बहोतसे रत्न पडे है, ऐसा समझकर आपभी शिष्ट नीति विचारके आप तैसी उत्तम पंतिक: अधिकारी होने के लिये प्रयत्न करना. जहांतक संपूर्णता आजावे पहातक सन्नीतिका दृढालंबन कीये करना दुरस्त है. यदि किंचित भी मंद पडकर मनको छुट्टी दी तो फिर खराबी तैसीही होती है. अल्प गुण प्रातिमही मनको दिमागदार बनानेसे गुणकी वृद्धि नहि होती है. बहोतही गुणोकी प्राप्ति होनेपरभी जो महाशय गर्व रहित प्रसन्न चित्तसें अपना कर्तव्य कीया करते है वो अंतमें अवश्य अनंत गुणगणालंकृत होकर मोक्षसंपदा प्राप्त करते है. ६२ पहिले सुगम, सरल कार्य शुरु करना. एकदम आकाशकों वगलगिरी करने जैसा न करते अपनी गुंजाश-ताकात पाद कर धीरे धीरे कार्य लाइनपर त्याना, सोही स्थानपनका काम है. एकदम बिगर सोचे सिरपर बडा काम उठा लेकर फिर छोडदेनेका वख्त आजाय और उलटा छछोरुपापन वेवकूफी सरदारी लेनी पडे उस्से तो समतासें काम लेना सोही सबसे बहेतर है.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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