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________________ ६७ ३३ आपत्ति वख्तभी हिम्मत रखकर रहना. कष्ट समयभी नाहित होना नहि. जो महाशय धैर्य धा रण करके संकट के सामने अडजाते है अर्थात् वो वख्त प्राप्त होनेपरभी उत्तम मर्यादा उल्लंघते नहि; मगर उलटे उत्तम नीति धोर को अवलंबन करके रहेते है, तिन्हको आपत्तिभी संपत्तिरूप होती है. शत्रुभी वश होता है. वो धर्मराजाकी मुवाफिक अक्षय कीर्ति (थापन करके श्रेष्ठ गति साधन करते है; परंतु जो मनुष्य वैसे वख्तमें हिम्मत हारकर अपनी मर्यादा उल्लंघन करके अकार्य सेवनकर मलीनताका पोषन करता हैं, वो इस जगत् भी निंदापात्र हो पापसें लिप्त हो परत्रभी अति दुःखपात्र होता है ३४ प्राणांत तकभी सन्मार्गका त्याग नहि करना. ज्यों ज्यों विवेकी सज्जनोंकों कष्ट पडता है त्यों त्यों, सुवर्ण, चंदन और उस [ गन्ने ] की तरह उत्तम वर्ण, उत्तम सुगंधि और उत्तम रस अर्पण करते है; परंतु उन्होंकी प्रकृति विकृति होकर लोकापवादके पात्र नाही होती है. ऐसी कठीन करणी करके उत्तम यश उपार्जन कर वो अंतमें सद्गतिगामी होते हैं. ३५ वैभव क्षय होजाने परभी यथोचित दान करना. चंचल लक्ष्मी अपनी आदत सार्थक करनेकों कदाचित् सटक जाय तोभी दानव्यसनी 'जन थोडेमेंसेंभी थोडा देनेका शुभ अभ्यास छोड देवे नहि, तैसे शुभ अभ्यास योगसे कचित् म- .
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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