SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५९ कथा, देशकथा, स्त्री कथा तथा भक्त-भोजन कथा यह चार विक थाको त्याग कर जिस्से स्व पर हित अवश्य साध सके वैसी धर्म कथा कहनी योग्य है. विकथा करनेवालेका कीमती वक्त कौडीके मूल्यमें चलाजाता हैं, और विवेकपूर्वक धर्मकथा कहनेवालेका वक्त अमूल्य गिनाजाता हैं; तदपि विवेकविकल लोक विकथा वर्जकर उत्तम धर्मकथा वक्तको सार्थक करनेके वास्ते खंत नहि रखते हैं, तो उन्होंको आगे बहोत पस्तानाही पडेगा. और जो विवेकपूर्वक यह हितोपदेशकों हृदय में धारणकर उस्का परमार्थ विचारकें सीधे रस्ते चलेंगे तो सर्वत्र सुखी होंवेंगे. सच्चे सुखार्थीींजन तो यह पापी पांचों प्रमादके फंदमें न फंसकर अप्रमाद दंडसें उन्होंका नाश करनेकेलिये उयुक्त रहनाही दुरुस्त धारते है. अप्रमादके समान कोइ भी निष्कारण निःस्वार्थ वांधव नहि हैं. इसलिये पापी प्रमादोंके ऊरका विश्वास परिहरके महा उपकारी अप्रमाद बांधवही सर्व विश्वास स्थापन करना कि जिस्से सर्वत्र यश प्राप्त होय. २५ विश्वासकों की भी दगा नहि देना विश्वास रखकर जो शरण आवे उस्कों दगा देना उसके समान कोइ - एकभी ज्यादा पाप नहि है. वो गोद में सोते हुवेका सिर काट देने जैसा जुल्म है. अच्छे अच्छे बुद्धिशाली - लोगभी धर्मके लिये विश्वास करते है. वैसे धर्मार्थी - जनोंको स्वार्थांध वनकर धर्मके व्हानेसेही उगलेवै यह बडा अन्याय है. आपही में पोलपोल
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy