SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुछ देना उचित हो तो भी प्रियभाषण पूर्वकही देना; लेकिन उच्चूंखलत्ति नहि. देना पियवाक्य पूर्वक दान देना सोही भूषण रुप है अन्यथा दूषणरुप ही समझना. औसा हिताहितको विवेक पूर्वक सुज्ञ मनुष्यकों वर्तन चलानाही योग्य है. नहि तो दिया हुवा दानभी व्यर्थ हो जाता है और मूर्खमें गिनती होती है. २० दीनवचन नहि बोलना. दीन वचनोसें मनुष्यका भार-बोज हलका होजाता है और फिर सुझजन परीक्षाभी करलेते हैं कि यह मनुष्य कपटी या तो - सुशामदखोर है. गुणवत। गुणि जानकर उचित नम्रता बतलानी वो दीनपनेमें नहि गिनीजाती है. गुणीपुरुषोंके स्वभाविक ही दास बनकर रहना यह अपनेमें स्वाभाविक गुण गुणप्राप्तिके निमित्त होनेसें वो दूपितही नहि गिनाजाता है, इसिलिये विवेक लाकर जरु- रत हो तव अदीन भाषण करना कि जिस्से स्वार्थ हानि होने न पावे, और यह उत्तम नियम विवेकी जन जीवन पर्यंत निभावे तो अत्यंतही शोभारुप है. २१ आत्मप्रशंसा नहि करनी. आत्मश्लाघा यानि आपवडाइ करके खुश होना यह महान् दोष है. इससे महान् पुरुषोंका अपमान होता है. ऐसे महत्पुरुषोंकी शातना-अवमानता करनेसे कर्मबंधन कर आत्मा दुःखी हाता ह. सज्जन पुरुषों की यही रीतिही नहि है. सज्जन पुरुष तो दूसरे के
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy