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________________ अपनकोंही आगे दुःख सहन करना पडेगा, इसिलिये हृदयमें कुछ भी विचार - पश्चाताप करके सच्चा परमार्थ मार्ग अंगीकार कर अपनी गंभीर भूल सुधार लेनेकों चूकना सो ज्याने सद्गृहस्थों को योग्य नहि है. श्री सर्वज्ञ प्रभुने दर्शाया हुवा अनंत स्वाधीन लाभ गुमा देना और अंतमें रीते हाथ घिसते जाकर परभवमें, अपनेही किये हुवे पापाचरणके फलके स्वादका अनुभव करना यह कोइभी रीतिर्से विचारशील सद्गृहस्थोंकों लाजीम -शोभारूप नहि हैं. तत्वज्ञानी पुरुषों के यही हितवचन है, जो पुरुष यही वचनोंको अमृत-बुद्धिसें अंगीकार कर विवेकपूर्वक आदरते हैं वै अत्र और परत्र अवश्य सुखी होते हैं. C. १८ किसीके अगाडी दीनता नही दिखलानी. तुच्छ स्वार्थ की खातिर दूसरे के अगाडी दीनता बतलानी योग्य नहि है. यदि दीनता -नम्रता करनेकों चाहो तो सर्व शक्तिमान सर्वज्ञकी करो; क्योंकि जो आप पूर्ण समर्थ हैं और अपने आश्रितकी भीड भांग सकते हैं. मगर जो आपही अपूर्ण अशक्त है वो शरणागतकी किस प्रकार भीड भांग सके ? सर्वज्ञ - प्रभुके पास भी विवेकसं योग्य मंगनी करनी योग्य है. वीतराग परमात्माकी किंवा निर्बंध अणगारकी पास तुच्छ सांसारिक सुखकी प्रार्थना करनी उचित नहि हैं. उन्होंके पास तो जन्म मरणके दुःख दूर करनकीही अगर भवभव के दुःख जिस्से हट जाय ऐसी • उत्तम सामग्रीकीही प्रार्थना करनी योग्य है. यद्यपि वतिराग प्रभु
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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