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________________ लोपन नहि करना. किन्तु प्राणांत तक तद्वत् वर्तन करनेकों प्रयत्न करना यही शास्त्रका सारांश है. वैसे सद्गुरुकी आज्ञा पूर्वकही सब धर्म कर्म-कृत्य सफल है. अन्यथा निष्फल कहाजाता है. इस लिये सदा सद्गुरुका आशय समझकर तद्वत् वर्तन में उधुर रहेना यही सुविनीत शिष्यका शुद्ध लक्षण है. __ ७ (अ) चपलता अजयणासें नहि पलना. ____ अजयणास चलनेके सबसे अनेकशः स्खलना होने उपरांत अनेक जीवोंका उपचात, और किंचित अपनाभी धात होने की संभव है. इस लिये चपलता छोडकर समतासें चलना, जिसे स्व परकी रक्षा पूर्वक आत्माका हित साध सके. (ब) उभट वेष नहि पहनना. अति उद्भ वेष-पोषाक धारण करनेसे यानि स्वच्छंदपना आदरनेसे लोगोंके भीतर हांसी होती है, इसलिये आमदनी और खी . देख-तपास कर घटित वेष धारण करना. जिस्की कम आमदनी हो उस्को झूठे दवदवाला पोषाक नहि रखना चाहिये तथा धनत हो उस्को मलीन-फट्टे टूटे हालतवाला पोषाक रखना चोभी मुनासीव है. ८वक्र विषम दृटिस नहि देखना.. सरल दृष्टिसें देखना, इसमें बहोतसे फायदे समाये हैं. शंकाशीलता टल जाय, लोगोंमें विश्वास बैठे, लोकापवाद न आने पापै, ५ परहित सुख साध सकै, ऐसी समदृष्टि रखनी चाहिये. अज्ञा
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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