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________________ ४४ महान् पाप होनेसें जगत्में महा रोगादि उपद्रव उद्भवते हैं उसके भोग होपडता है, और मांत-अंतमें नरकादि घोर दुःखके भागीदार होना पडता है. २ निरंतर इंद्रिय वर्गका दमन करना. ___ हरएक इंद्रियका पतंगजंतु, भौंर।, मत्स्य, हाथी और हिरनकी तरह दुरुपयोग करना छोडकर संत जनोंकी तरह इंद्रियोंका सदु पयोग करके हर एकका सार्थक्य करने के लीये संत रखनी चाहिये. . एक एक छुट्टी की हुई इंद्रिय तोफानी घोडेकी तरह मालिकको वि एम मार्गमें ले जाकर वार करती है, तो पांचोंको छुट्टी रखनेवाले दीन अनाथजनके क्या हाल होय ? इसी लिये इंद्रियोंके तावेदार न बनकर; उन्होकों परयकर स्वकार्य साधनमें उचित रीति भुजब प्रवत्तानी चाहिये. किंपाक तुल्य विषयरस समझकर उस्की, लालच छोडकर संतदशेन, संतसेवा, संतस्तुति, संतवचन श्रवणादिस उन इंद्रियों का सार्थक्य करनेके लिये उद्युक्त रहकर प्रतिदिन स्वहित साधनेकुं तत्पर रहना उचित है. ३ सत्य वचनहीं बोलना. __धर्मक रहस्यभूत, अन्यकों हितकारी, तथा परिमित जरुर जितनाही भाषण औसर उचित करना, सोही स्वपरको हित-कल्याणकारी है. क्रोधादि कमायके परवश होकर वा भयसे या हांसीकी खातिर अज्ञमन असत्य बोलकर आप अपराधी होते हैं, सो खास
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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