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________________ १ मपंच द्वारा अपना पापी पेट भरेंगे, तब तक सुखका दिन दूर ही समझ लेना! जहाँ तब क्षणिक विषय सुखकी खातिर निर्दयतास लखी पल्कि करोंडों जीवोंकी हिंसा करनेमें कुछ भी डर नहीं लगता है, झुठ बोलने में बिलकुल भी पीछा नहीं हठते है, अनीति, अनाचरणसे परद्रव्य हरन करना प्यारा लगता है, पर स्त्री सेवन वैश्या गमन करनेमें भी कुछ डर नहीं लगता है और पैसा प्राणकी तरह प्रिय लगने से धर्मकी भी उपेक्षा करके अनाचार सेवन करके भी पैसा पैदा कर लेनेमें तत्परता रहती है, वहांतक उत्तम प्र. कारके संतोपका मुख परखनेका समय किस प्रकारसे प्राप्त होवै ? - जहांतक पाप प्रवृत्ति परायण रहकर उसमें मशगुल हो प्रमादका ही पुष्ट बनावगे, वहां तक निष्पापडत्ति-निटत्ति जता सुख किस तरह हाथ लगेगा ? जहां तक क्रोधादि कपायके तापसे किंचित् भी परांडमुख न होवेंगे यानि दूर न हटगे, वहां तक समतादि सद्गुणो की शीतलताका साक्षात् अनुभव अपनका हो सकेगा ही नहीं ! जहां तक इंद्रिय जन्य सुख-विलासमें. रसिक-लंपट बनकर उनके दास हो रहवेंगे वहां तक अतींद्रिय-सहन मुखका अनुभव किस प्रकार हो सके ? श्री जिनपर भगवान्न परम करुणासें बताये हुये अमृत फलके देने हारे कल्पवृक्ष समान दान, शील, तप, और भावनारुप चतुविध श्री धर्मका अनादर करके स्वच्छंदनासें अधर्मका आदर करनेके सबसे असे उत्तम अमृत फलका स्वाद प्राप्त करनेका मोका
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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