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________________ अन्य आत्मार्थी जनोंको भी जैसा ही उपदेश देते हैं कि: "दाले दाह तृषा हरे, गाले ममता पंक .. लहरी भाव वैराग्य की, ताको भजो निशंक." । विषय विस हो सब संसार बंधनोंको तोडकर सहज मुक्ति सुख प्राप्त करनेके वास्ते योग सेवनेके लिये उत्साहवंत भये हुए भन्यको ज्यौ ज्यो पैराग्य की पुष्टि होती है, त्यो त्यौं सहज संतोष गुणसे सहज सुखकी वृद्धि होती है. यावत् विषयवासनाके क्षयसे, संपुर्ण दुःखों का क्षय होता है, और वोही अजर, अमर, अक्षय, अव्यापाथ, मोक्षपद है. - सौजन्य-सज्जन स्वभाव सुलभ नहि है. जब दुर्जनता-दुर्जन ५५भाव दूर किया जावै, जब निर्दयता, निर्विवेकता, अनीति, आचरण, असत्य भाषण, परनिंदादि पाप, रति और दूध कषायादि दूर जावै, तब सोजन्यता प्राप्त करनेको लायक वो प्राणी होता हैं. चाहे पैसे प्रसंगमें दूसरेके दूषण नहीं कहव, गुण ही ग्रहण करै, आगलावा न करै, और अपने आपसे ही जितना बन सके उतना नि:स्वार्थतासें परोपकार कर उसका नाम सज्जन है. जैसे चंदनका स्वभाव शीतलता करनेका है, तैसे स जन भी आपके शांत-शीतल . स्वभावसें दूसरेको शीतल करता है. जैसे काट डालने परभी गन्नेका भाव मधुर रस देनेका है और पीडा देने वालेकोभी अच्छा शांत रससे संतोपता है, तथा जैसे सुनेकों आग्निकी जबरदस्त आंचमें डाल देने पर भी आप .
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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