SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 312
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१ "कर्मकटक जीत सोही जिन, ( और ) उनसे त्रास पावे । सो दीन." ७२ "पंडित ते जे निराभिमान." ७३ " इच्छारोधन तप मनोहार." ___७४ " शक्ति होनेपरभी छपा देवे सोही चोर." ७५ " अंतरलक्ष्य रहित सो अंध, जानत नहि मोक्ष अरु बंध." ७६ “ जो नहि सुनत सिद्धांत वखान, बधिर पुरुष जगमें सो जान." ७७ " औसर उचित बोल नहि जानताको ज्ञानी मूक बखाने." ७८ " मोह समान रिपू नही कोइ, देखो सब अंतरगत जोइ." ७९ " डरत पापसे पंडित सोइ, हिंसा करत मूढ सो होइ. ८० " कल्पवृक्ष संयम सुखकार, अनुभव चिंतामणि विचार." ८१ " कामगपी परविद्या जान, चित्रावली भक्तिचित आन" ८२ " नयनशोभा जिनबिंब निहालो, जिनप्रतिमा जिनसम करी धारो." ८३ " सत्यवचन मुखशोभा भारी, तजें तांबूल संत ते धारी.” ८४ “निर्मल नौपद ध्यान धरीजें, हृदय शोभा इनविध नित कीजें." ८५ " सद्गुरु चरणरण शिर धरियें, भाल शोभा इणविक भवि करिये." ८६ " अहिंसा परमोधर्मः जीवदया समान कोइ उत्तम धर्म नहीं है." . .
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy