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________________ नदेखा वैसे हैं, सदाकाल उदयवंत हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होंकों कुछ करनेका बाकी नहीं रहा है, शिव-कल्याणरूप हैं, शांत-क्षोभरक्षित हैं, निकल-शरीर रहित,करणच्युत इंद्रियेविगरके, समस्त भवसे उत्५न भये हुवे क्लेशरुप वृक्षकों दध करनेको अग्निसमान हैं, शुद्ध-कर्मरहित हैं. अत्यंत निर्लेप है-कभी कर्मका किचित्भी लेप नहीं लगता. ज्ञानराज्य सर्वज्ञपनेकी अंदर स्थापित हैं, निर्मल आयनेकी अंदर दाखिल भये हुवे प्रतिषिष समान जिन्होंकी प्रभा है, ज्योतिर्मय-ज्ञानप्रकाशरुप हैं, महान् शक्तिमान् हैं, परिपूर्ण हैं, पुरातन हैं, किसीने नये बना ये हुवे नहीं, निर्मल आगुण सहित हैं, निद्र-रागादि दोषरहित हैं, रोगरहित हैं, अप्रमेय, अमाप-जिन्होंका प्रमाण न हो सकै वैसे है, विश्वनत्त्वकी अवस्था जाननेवाले हैं, पाह्यभावसे ग्रहणयोग्य नहीं, अंतर्भावसे क्षणमात्रमें ग्रहण करने योग्य हैं, ऐसे स्वभाववाला साक्षात् स्वरुप परमात्माका है.पुन: जो अणुसें भी सुक्ष्म, और आसारासे भी बड़े है, सो सिद्धात्मा जगत्वंध, अत्यंत निहत्त-शांत सुखमय निष्पन्न हुवे है, जिन्होंके ध्यानमात्र ही संसारसे प्राप्त होनेहारे जन्ममरणादि रोगनष्ट होते हैं-अन्यथा नष्ट नहीं होते, सो ये सिद्धात्मा जगत्मभु अविनाशी परमात्मा हैं. जिन परमास्माकों जान लिये बिगर दूसरा सब जान लिया निकाला है, और उन्हीको जान लेवै तो फिर सब कुछ जान लिया ही है. जिन परमात्माको स्वरुप जाने बिना आत्मतत्वका निश्चय नहीं होता आवरुपमें रमण नहीं होता, और जिन्होंकों जानकर मुनियोंने सा
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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