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________________ ૨૮૪ पुनः जैसी भावना करै कि:-अनंतवीर्य, अनंतविज्ञान, अनंतदर्शन, और आनंदस्वरूपभी मै हुं, तो मै उनके प्रतिपक्षि-शत्रुभूत कर्मविषक्षकों क्यों आज जडमूलमैसें न उखाड डाएं ? अवश्य उखाड डाटुं! फिर जैसी विचारणा करै कि:-आज अपना सामर्थ्य मिलाकर आनंदमंदिर में प्रवेशकर बाह्य पदार्थोंमें स्पृहारहित भया हुवा मैं अपने स्वरुपसे भ्रष्ट नहीं होउंगा. जब आत्मा अपने स्वरुपमै स्थिर होता है, तब आनंदमय होता है, और अन्य वस्तुओमें स्पृहा गरज-दरकाररहित वनता है. इच्छारहित हुवे बाद अपने स्वरुपसे क्यों पीछा पडेगा? __ कर्मरुपी शत्रुने अनादिकालसें फेलाइ हुई विधा-मिथ्याज्ञान जाळकोंभी छेदकर आजही मेरे मेरे स्वरुपका परमार्थसें निश्चय __ करना है. इस मुजव ध्यानको उद्यम करनहारा आपका पराक्रम समालकर प्रतिज्ञा करता है इस तरह प्रतिज्ञा करके धीर पुरुष सकल रागादि कलंकसे रहित हो चंचलतारहित होकर धर्मध्यानका __ आलंबन करता है, और विशाल बल होवै, शुक्ल ध्यान योग्य __ सामग्री हो तो शुक्ल ध्यानका आलंबन करता है. निर्मल बुद्धि पुरुष ध्येयवस्तु क्या होवै वो कहते है. ध्यान पस्तुका होता है-अवस्तुका नहीं होता. परंतुचेतन, अचेतन असे दो प्रकारकी होती है. चेतन सो जीवद्रव्य है. अचेतन सो पांच प्रकारके धर्मादिक द्रव्य है. पुनः वस्तु उत्पत्ति, विनाश और स्थिति
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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