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________________ २७७ थगामी मुग्धजनाको परिचय-आदर करता है, वैसे स्वच्छंद वर्तन· के लिये भवांतरमें उन्हीकाही आत्मा परिताप सहन करेगा. जो मर्यादाको छोडकर नाना प्रकारके रस ग्रहण करनेमें या मौजमें आवै वैसा आडा टेडा उलटा वेतरडालनेमें (मुखरीपनामें) ही रसना (जीव्हा) की सार्थकता मानते हैं; परंतु ज्ञानीपुरुषोंके हितबोध मुजब भोगको रोगसमान वा विषयरसको विष (हालाहल झहर) समान गिनकर उससे किंचित् भी नहीं विरमते हैं; यावत् ७८,खल होके ज्यौं आवे त्यौं मदमत्तकी तरह बकवाद करते हैं, उनका भव्य ( भला-अच्छा ) होना दूरही है. जो आत्माकी सहज (वाभाविक) सुगंध (सुवासना) का अनादर करकें केवल कृत्रिम पुद्गलिक सुगंध लेने की लालसा रखने हैं, और दुर्गध प्रति द्वेष (अरुचि) धारन करते हैं। ऐसे मुग्ध मुमुक्षु महोदय-मोक्ष प्राप्त करनेकों किस तरह भाग्यशाली हो सके ? जो परमोपकारी और गुणनिधान श्री गौतम सदश गुरुमहाराजकी द्रव्य और भाव (बाह्य और अभ्यंतर) भक्तिका अपूर्व लाम छोडकर-तिरस्कार कर विवेकविकल बनकर नीच अबला (पुंश्चली-कुलटा-कुमति-कुटिला) का संग-परिचयकरके पूर्व अरिहंतादिक पंच साक्षीसें ग्रहण किये हुये महानताको उचे रखदेते है, और पवित्र हंसवृत्ति छोडकर काकष्टत्ति धारण करते हैं, यावत् सिंहत्ति परित्याग कर स्वानवृत्ति धारन करते हैं, वैसे अधम अनाचारी पविडंबक हैवानोंके क्या हाल होगे वो सहजहीमें समझा जाय वैसा है. मन-वचन और कायाके योगोंको
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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