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________________ ર૭૩ दासकी तरह दीनता दिखलानेवाले और ऐसेही कल्पित सुखके सबसे धोली-पीली मिट्टी (सुन्ना-चांदी) पर राग रखकर बैठे हुपे, किंवा प्रकट नरकके द्वारभूत नारीमें रति-प्रीति रखनेवाले अधम-पेप विडवक तो किसी सूरतस भी अक्षय शिवमुखके अधिकारी हैही नहीं. सांप जैसे कंचुकीका त्यागकर डाले वैसें बाह्य परिग्रह मात्रका त्याग करके अंतरंग काम क्रोधादिक अरिंगणका जिन्होंने जय किया है वही सच्चे निग्रंथ हैं-निग्रंथके नाँवकों वही सार्थक करते हैं. लेकिन उनसे विपरीत चलनेवाले तो निग्रंथ नांवकों डुवाते हैं. शरमिंदा बनाते है अलवत्त ऐसे दंभी मायादेवीके सेवकोंकों उनके प्रतिकूल वर्तनके लिये योग्य शिक्षा बेशक होवेगी ही होगी, उस्में कुच्छ संदेह नहीं. उपशम रसमें मजन करनेवाले क्षमाश्रमणगण निंदक या वंदकपर समभाव सह समाधिस्थ रहता है, के पाय कलुपित लिंगधारियोंकी मुवाफिक क्षनभरमें मासा और क्षनभरमें तोला नहीं होता है. निंदकका उपहास्य या दककी प्रशंसा नहीं करता है. दोनुपर समान हितबुद्धिही धारन कर रहता है, वही सच्चे योगीश्वर कहे जाते है. वै क्षमाश्रमण चाहें वैसे विषयसंयोगोंकी अंदर भी एक क्षनभर समभाव नहीं छांड देते हैं. बाकी स्वच्छंदतासें साधुपेष धारण किये परभी भोगी भ्रमरॉकी तरह विविध विषयवासना विवस हो, तुच्छ आशाके मारे जहां तहां भटकनेवाले तो भीखारी लोगोंसें भी (योगभ्रष्ट
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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