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________________ .. २६६ तो भतीति पूर्वक कहा जाता है कि जरुर कुछ अच्छा परिणाम आयेही आवै. ऐसे अच्छे परिणामके वास्ते उन्होंने भी ऐक्यताका सेवन करके अपने उचित आचार विचारकी मालिका सुधारलेनीही मुनाशिव है. मेरे प्यारे भाइ भगिनीओंकों अति नम्रतायुक्त विनती करनेकी है कि जब अपन इस मुजब अपने परमपूज्य पितारुप पूर्वाचायाँके पवित्र कदमसे प्रणति पूर्वक चलकर अतिक्लिष्ट परिणाम कर खटप८को खडी करने हारे हजारों लोगों के बीच तमासा बतलाकर निर्मल शासनको निस्तेज करवाले, तथा आपके शुद्ध ज्ञान दर्शन चीरित्रके रसको ढोल डालनेवाले और परिणाममें परम दुःखदायक मिथ्या मान मत्र्तगजको मार नाशकर परस्पर योग्य नम्रता धारनकर पूर्वे घुस गया हुपा कुसंपकों काट-दाटकर अक्यता धारन करके उचित आचार विचारकी शुद्धि कर अपना कितनेक वखतसे व्यवस्थासें विसंस्थल भया हुवा पवित्र धर्मकी प्रणालीका सुधारेंगे, तो पीछे अपन अपना स्वकल्याणसह अपने आश्रित श्रावक श्राविकाओका भी कल्याण सिद्ध होयै असा सरल मार्ग खुल्ला करदेंगे मगर जहांतक मिथ्या मानमां मोहित हो उचित विनय नम्रता भी छोडकर क्लेशकारी कुसंपका पोषण कर-शक्ति होने ५२भी अपने पवित्र आचार विचारकी हानि होने देकर-पवित्र शासनकी मलीनताको काराणक होकर अपने आपकेही कल्याणका बदरकारी करेंगे, वहातक अपने आश्रितभूत श्रावक श्राविकाआका कल्यान करनेकी अपनी इच्छा वंध्याके पुत्र होने जैसी व्यर्थ आशा
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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