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________________ लेनेका इरादा ही नहीं रखते है, पराइ स्वीकी तर्फ निगाह भी नहीं डालते है और पुद्गल द्रव्यमें महा मुी भी धारने नहीं करते हैं. सर्वज्ञ पुरुषोंकी या सर्वज्ञ पुत्रोंकी हितशिक्षा पाकर परभवसे डरकर पापको परिहार करते हैं.ोध-मान-माया-लोभ इन रूपी चांडाल भंडलीका संग करना भी नहीं चाहते हैं. क्रोध कपायके तापकों चंदनसे भी ज्यादे शीतल समतारससे शांत करते हैं. जातिमद, कुलमद, बलमद, तपमद, बुद्धिमद, रूपमद, लाभमद और अश्वर्थमद-इन रुप आठ उंचे शिखर युक्त मानरुपी दुर्धर पहाडको मृदुतारुप वनसें तोड डालते है. मायारूपी नागिनीके झहरको ऋजुतारु५ जनागुली मंत्रके योगसे दूरकर देते हैं, और लोभरुपी अगाध दरिया-' कों संतोष अगस्त्यकी सत्सहायतासे शोषन करलेते हैं. राग और द्वेषकों कहे दुस्मन समझकर उनका विश्वास नहीं करते हैं मतलब कि संसारके क्षणिक पदार्थोपर राग या द्वेष नही करते हैं. कलहको अपने और परायेके कलेशका कारण जानकर बिल्कुल त्याग करते हैं. दूसरेके शिरपर झूठा कलंक चहाना, रहस्य भेद करना (चुगली करना) और परनिंदा करने का स्वभाव उन्होंका कर्मचांडाल जैसे समझकर तदन त्याग देते हैं. सुख किंवा दुःखकी सामग्री के वक्त समभाव रखकर हर्षविपाद नहीं करते हैं. माया-कपर और झूठकों; अगर कहना कुछ और करना कुछ-इन्होंको हालाहल विष जैसे जानते है, और मिथ्यात्वको समस्त पापका ही मूल गिनकर उसका जरासा भी संग नही करते है. इस तरह स-,
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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