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________________ - २४० शयसे भगीरथ भय सेवन करनेमें आयगा तभी अपने शुभोदयकी संभावना हो सकेगी. अपना शुभोदय साधने के वास्ते जो जो साधनोंकी जरूरत है वो पो शुभ साधनोंका स्वरूप सद्गुरु द्वारा समझकर-विचार-मुकरीरकर पूर्ण प्रीति प्रतीतिपूर्वक उत्तम उल्लाप्तवंत भावसे उन्होंका सतत सेवन करनेके वास्ते विवेकवंत चकोरोको भूलजाना न चाहिये. अंतम संक्षेषपूर्वक सुज्ञ सजजनोंके हितके वास्ते यावत स्वपरके अभ्युदयद्वारा सर्वज्ञ शासनकी उन्नति बढानेके वास्ते निलिखित शुभ साधनश्रेणिका स्वरूप मुगुरु समीप जाकर सविनयस समझ और उसका पूरेपूरे तोरसे निर्णय करके उसी मुजव चलनेको यथाशति उद्यम करनेके वाले हंस जैसे गुणग्राही विवेकी सजनोको आया हुवा समय हाथ में जाने न देना चाहिये. १ 'संप वहांही जप' और कुसंपका मुँह काला' यह ध्यानमें लेकर कुसंपको काटने के वास्ते और सुसंपकों स्थापन करनेके - पास्ते अनुकूल सामग्री सजने के लिये भगीरथ प्रयत्न सेवन करना. मुसंप विगर अपना या पराया कल्यान सहेलतासें नहीं हो सकता है, और जैन शासनकी शोभा भी नहीं बढ़ सकती है। वास्ते पहिला कर्तव्य संप-क्यता करनेकाही है. २ दुःख पाते हुवे यानि दुःख पूरित स्थितिमें फंसे हुवे सा. धर्मीभाइ और भगिनीयोंको जितनी बन सके उतनी तन, मन, धनकी ताकीदसें आहूती देकर हो सके उतना उद्धार करना, और वोभी असा समझकर करनाकि उन्हीके हितहीगें अपना हित'.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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