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________________ २३६ व्यय करडालता है, जरुरत होवै तो चाहे पैसे की खुशामत भी करता है, यावत् दासत्व भी स्वीकार लेता है. परंतु अपना सची स्वार्थ साधने वस्तमें तो गरीयार बहेलकी तरह सत्वहीन-कायरपुरुषार्थ विगरका बन जाता है, ये क्या ओछे शरमकी बात है ? मगर खेर ! संपूर्ण ज्ञान विवेककी खामीसं मनुष्य मात्र भुलका पात्र होता है. या विवेक दृष्टि विगरका मनुष्य भी पशु समान गिनाया जाता है. तो अब तकभी कुछ विवेक लाकर यह देश - टांतसें दुर्लभ मानव भव वगैरः विशीष्ट सामग्री सफल करनेकी इच्छा हो तो अब ज्यादे तोरसे सावधान होकर प्रमाद शत्रुके तार हुए विगर अपना तन, मन, धन आदिको सदुपयोगसे स्फुरायमान करनेके लिये भारी प्रयत्न करनेकी खास जरुरत है. जन्म, जरा, __ मृत्यु, आधि, व्याधि, उपाधि, संयोग और वियोगके संबंधवाल अनंत दुःखमें सर्वथा रहित शास्वत सुख संपादन करने की चाहत वाले भव्य जीवोको सुद विचार करना ही दुरस्त है कि कोई भी भारी अगत्यका कार्य किसीने कवी कुछ भी स्वार्थ भोग दिये विगर सिद्ध किया है ? उसके उत्तर 'ना किसी ने नही किया !' बस यही कहना पडेगा. तब कया मोक्ष संबंधी अनंत सुख अपन अपने आपसे ही तन मन धनके भोग दिये विगर ही क्या सहज साध शकगे ? ना कवी भी नहीं. तब मेरे प्यारे भाइयो ! आजकल चलती हुइ अंधाधुंधी यानि अपनी अपनी मोज मुजवका वर्तन असाका जैसा कहांतक चलाये जायेगे ? मुनिजन मोजमें आप
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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