SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 244
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के अल्प आयुष्यमें भी आत्मसाधन करलेना धो कुंडमिसें रन. निकाल लेने जैसा सहल है। लेकिन वो हस्त करनेकी फिक्रवाला हो उन्हीसे हो सकता है. जो आलसु होगा उनको तो बड़ी भारी मुरली वाला मालुम होगा. अपनी अनादीकी भूलोको अच्छी तरह जाननेके वास्ते पूर्ण ज्ञानकी जरुरत है, सम्यग्ज्ञान के प्रवेश वि.स क्षणिक और असूचीमय यह जड देहपरकी ममता छोडकर अपना कर्तव्य करने में किंचित् भी पीछा पाँव हठाना दुरस्त नहीं है. असा सोचकर 'देहे दुःख महाफलं-' यानि समझकर समतापूचक धर्मकरणी करनेमें देहकुं कुछभी दुःख होता हो तो उसको सहन करलेना सो वडा फलदायी है। क्योंकि सम्पर ज्ञान और सम्या किंया जोरसें संसारसागर तिरना सुलभ हो जाता है. और वोही ज्ञान तथा वोही क्रिया के अभावसे चतुर्गति संसारमें अनेक दफै भ्रमणही करना पडता है; वास्ते अपलमें तो सम्यम् वस्तुतत्व जानकर उत्तम विवेकसे उसी मुजब आचरण रखनेकी खास जरुरत है, इन दोनूमेंसे एककीभी उपेक्षा करनी बडी दुःखदायी है. तो दोनूमें बेपरवाह रहने वाले मूसलाय बुद्धिवंतका तो कहनाही कया ? जैसे मंत्रशास्त्री मंत्र का पूर्ण प्रकार प्रयोगका विषधर सांपका भी वि५ निकाल सकता है, वैसेंही विवेकी जन सम्बज्ञान-क्रियाके जोरसे कर्मरूपं सांपका भी शहर दूर कर सकते हैं. किंतु अकेले ज्ञानसे या अफैली क्रियासें वो नहीं दूरकर सकता है. पास्ते प्रथम सन्मार्गका પૂર્ણ શરમાન જ પને શત્રુમમા છોડ પૂર્ણ કે મોક્ષ નિ
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy