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________________ २०४ बनकर धर्मसाधनमें बेदरकार रहोगे तो फिर तुमारी आल औलाद (शिष्य प्रशिष्य-पुत्र परिवार ) क्यों करके सच्चा मार्ग सम झ सकेंगे और शीख सकेंगे? सच्चा मार्ग समझनेमें आये विगर ___ या शीखे विगर वै क्यौं करके आदर सकेंगे ? सच्चा मार्ग आदरे विगर सुखी भी क्यों करके हो सकेंगे ? इसतरह उन विचारोंको सचे मुखोंमें विघ्न डालनमें सच्चा कारणिक कौन है ? तुमारेही 'कबूल करना पडेगा कि तुम खुदही हो; तब तुम तुमारी संततिके हितस्वी या शत्रु ? अल्प वाक्यों में कहे तो तुम खुद अपना और तुमारी संतति या पवित्र शासनका यदि भला चाहते हो तो इंद्रजालबत् झूठे विषय सुखसे विमुख हो कर बडे दुःखदायी दोषोंकों छोडकर खुद तुमही पहिले बराबर सुधरने गुणोंकी दरकारी करने चाले हो ! अभ्यास करो और पीछे तुमारी संततिको सुधारा यु. बनानेका प्रयत्न करो. कोइ खुद आपतो वेधडक व्यभिचार सेवन कर और दूसराको ब्रह्मचर्य पलानेका उपदेश देवै सो क्या लगै ? कुछ नहीं लग ! लेकिन आप खुद शील-संतोषादिक उत्तम गुण धारण करके वैसेही गुण धारन करनेका अपनी संततिकों या दसरे योग्य भव्य जीवोंकों उपदेश दे तो मैं मानताहुं कि वो अल्प महेनतसे उमीद बर आ सकै ! अरे ! विगर उपदेश दिये भी कितनके गुणग्राही वीर नर तो वैसे सुशील धर्मात्माओंसे सहजमें उन्हीकी रीति भांति देखकर शीख लेवे. असे पवित्र गुण धारक साधु साध्वी श्रावक श्राविकारुप चतु
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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