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________________ है, त्यौं त्यों अपने आरंभ किये हुवे कार्यकी सिद्धि संबंधी प्रतीति केर देवे वैसा अपूर्व उत्साह पढता जाता प्रत्यक्ष मालुम होता है. इस तरह से अवलमें अपनी वीर्यशनि छपानेवाले इतनी शक्तिविकार करके आखिर अपना कार्य सिद्ध कर सकता है। लेकिन प्रथमसें ही मंद परिणामको धारन करनेवाले शिथिल हो कायरकी तरह बोलनेवाले और चलनेवाले शूरवीरकी तरह अपना इष्ट नहीं साध सकते हैं. द्रव्यका व्यय करनेमेंभी विवेकसे वर्तनकी उतनी ही जरुरत है. आज कल कितनेक मुग्ध भाइथे प्रभुजीकी गोदमें या पाटलीके उपर फल निवैधकी साथ पैसे या रुपैये चहाते है। मगर उरों बारीकीसें तपास करने में आये तो बहुत दफै चोरीको पुष्टि दिजाती है. फिर प्रभुजीके पास द्रव्यकी भेट करने का सबब भी भंडारदेवद्रव्यकी वृद्धिकाही होता है, सो तो प्रायः असा करने से बिलकुल पार नही पड़ सकता है। वास्ते उसका श्रेष्ठ विवेक पूर्ण यही रस्ता है कि वो द्रव्य प्रभुजीके अंकों या दूसरी खुल्ली जगह नहीं मूक रखना; बंध करके जहां गुप्त या जाहिर भंडार होवै वहांही बालने दुरस्त है या कारखाने में लिखवाकर रसीद ले लेनी योग्य है. तीर्थस्थानोंमे पैसेकी बहुतसी चोरीयें होती हैं उसको जात्रालु भी नहीं जान सकते है; वास्ते उन्होंको खबर होनेके लिये यह अनुभवसिद्ध लेख जाहिरमें १०खा गया है कि प्रभुमंदिरोम . ६०यभंडारमें डालनेकी आदत रखनी चाहिये. और अपने तमाम
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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