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________________ १९३ सनमभावना कारक, पविध जयणाके पालनेवाले, खास जरुरतके वस्तही छः प्रकारके आगारका उपयोग करनेवाले, तथा सम्यपत्यके छः स्थानकको स्पर्शने वाले असे सम्यक्त्व सुरमणिधारक, विवेक पूर्वक श्राद्ध उचित मर्यादा-५ अणुव्रत, ३ गुण व्रत और ४. शिक्षाबत एवं १२ व्रतधारी, पूर्ण यकीनसें श्रीतीर्थकर और निग्रंथ प्रवचनका साधनेके अभिलाषी, सुशील, न्यायमती-नीति निपुण, व्यवहार कुशल, अति आरंभ क्रियाके त्यागी, संतोपी, धीर, वीर, गंभीर हो शासनकी उन्नति करने में उत्सुक, प्रासंगिक मली. नता उड्डाह दूर करने में हर्षचित्तवंत, निरंतर उचित आचरणा-चतुर, स्वसमाचारी कुशल, सुपात्र पोषक, मिथ्यामति भदशोपका विवेक संपन्न, नारक पारक समान संसारको गिनकर उसे जलाजली देनेकी तक हाथ करनेमें तत्पर, हमेशाः नौसरहारवत् नौपदका ध्यान हृदयसें न भूलने वाले, अवसानके वख्त ज्यादा ज्यादा सावथानी रखने वाले, निरंतर स्वपर हितकी तर्फ लक्ष देने वाले, कृतज्ञ, दयादिलवंत, लज्जाशील, दाक्षिण्यतावंत, मध्यस्थ, लोकप्रिय और शिष्टाचार मुजप उपयोगसें चलनेवाले श्रावक और श्राविकाओंका समुदाय ये सव 'जंगम तीर्थ' कहा जाता है. क्योंकि गंगानदीके प्रवाहकी तरह पवित्र आशय धरनेवाले वै सुधातलजमीनपर जगह जगह फिर कर अपने चरणन्यास से अपने समागममें आनेवाले भव्य जीवोंको पवित्र करते हैं. जगतका दारियों जंगम तीर्थ अनेकशः अपहरता है, और मंगललीला विस्तारवंत केरता है.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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