SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ घाती कर्मका संपूर्ण क्षय करके अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र और अनंत वीर्यरुप अनंत चतुष्टय संप्राप्तकरक-प्रकट करिक स्वर्ग मृत्यु पातालके हित निमित्त देवोंके बनाये हुवे समवसरणके वीच मुरस्थापित पंचम प्रातिहार्य सिंहासनपर विराजमान होकर बारह पपैदाकी मध्यमैं अमृतमय-मधुर देशनाजल वाकर भव्य समूह क्षेत्रका सुरसमय बनाकर सम्यक्दर्शन-बोध बोधजिकों अंकुरित किया. और इंद्रभूति वगैरः गनधरजीको त्रिपदी देकर साधु-साधी-श्रावक-श्राविकारु५ चतुर्विध श्री संघ ( तीर्थ) की स्थापना की, उसी वक्त से इस भारत भूमिमैं जाहोजलालीके साथ जैन शासन ज्यादे तौर पर विजयवंत हो प्रवर्तने लगा और प्रभुजीके परम पावन गुणों-अतिशयोंसे सर्वत्र शान्ति फैलाने लगी.. प्रभुजीक परम पुनित अमृत वचन श्रवन करके प्राणि मात्र करु। बुद्धि के साथ उत्तम प्रकारकी मैत्री, मुदिता और मध्यस्थता धारन करनेवाले हुने. अविवेक, अनीति, अन्याय या असत्यका मार्ग सागन करिके विवेक पूर्वक नीति न्याय या सत्य मार्गका अवलंबन करनेवाले हुवे. साधर्माजनो के साथ परम प्रमोद भाव परनेवाले दुवे. प्रतिज्ञा करनेमै दक्ष हो अहित प्रतिज्ञाको प्राणकी तरह पालने लगे. शील-ब्रह्मचर्यकोही सच्चा भूषण या अलंकार, विवेककोही सच्चे लोचन, और सत्यभाषणकाही मुखमंडन मानने लगे. उत्तम आचार और उत्तम विचारोंमें कुशल तथा अप्रमादी हुवे. संत सु' साधुजनोंके दास बने हुवे रहने लगे. मन और इन्द्रियों का यथायोग्य
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy