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________________ १७६ रीवर्गको रजोहरण-ओघा वगैर से तिनदफै प्रमार्जन पूर्वक प्रभुको प्रणाम कर चैत्यवंदन करना. ८ वर्णादिक त्रिक-श्री जिनेश्वरजीके पास उत्कृष्ट-मध्यम या जघन्य ( अनुक्रमसें आठ, चार या एक स्तुति-थोय-थुइसें) चैत्यवंदन करने वख्त वो वो सूत्राक्षर, सूत्रार्थ इन दोनुमें बराबर लक्ष रखने के साथ श्री जिनप्रतिमाजीका ढालंबन रखनाः सबकि उपयोग शुन्यतासें की हुइ करणी सफल न होवै. ९ मुद्रात्रिक पैत्यवंदन करने के वसत नमुथ्थुगं पढ़ते तक योगमुद्रा धारन कर रखनी. काउ(सग्ग ध्यान के १७त जिनमुद्रा 'करनी, और प्रणिधानत्रिक यानि जावंति आई, जावंतकविसाहु और जयवियरायपढ़ने के वस्त 'मुक्तामुतिसुद्रा' धारन करनी. परस्पर कमलकी कलीकी तरह दोनू हाथद्वारा दशों अंगुलियोंका पेचकर अपने पेट के उपर दोनू हाथोंकी कोंनी स्थापन करने से 'योगमुद्रा' हुई गिनी जाती है. चार अंगुल अगाडी के भागमें और चार अंगुलमें कुछ कम पिछाडे के भागमें पाँव फैलाये हुवे रखकर कासग करना सो 'जिनमुद्रा' हुइ समझनी. और एक दूसरी अंगुलीओंको बराबर जोडदेकर दोनू हाथ परावर पोकल रखने में आवे और दोनू हाथ कपालको जग रखने में आवै (कितनेक आचार्यों के मतसं कपालकों नही भी लगानेमें आवे ) यौं करनेसे दोनू सीप मिली हुई होने जैसा हाथका आकार होने से उसे मुक्ता। सुक्तिमुद्रा कही जाती है.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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