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________________ १७४ जिनमंदिरकी भमतीमें यतना पूर्वक मार्ग में कुछ भी किसी तरहकी आशातना जैसा मालुम होवै वो आप खुद दूर कर, कराके तीन दफै उपयोग सह फिरना यानि तीन प्रदक्षिणा दैनी. ३ प्रणामत्रिक-चाहे उतने दूरसे श्री जिनेंद्रजीके जब 'दर्शन' होने लगे तब तुरंत आदर पूर्वक दानु हाथ जोडकर 'अंजलिबद्ध' नमस्कार करना, सो प्रथम प्रणाम. बाय प्रदक्षिणादि देकर बीचले द्वारमें आकर प्रभु समीप अई अंग झुकानेरुप 'अर्धावनत करना सो दूसरा प्रणाम. और अंतमें यथा अवसर प्रभुजीकी द्रव्य पूजा कर चैत्यवंदनके पेपर पांच अंग यानि दोनु हाथ, दो जानु और मस्तक ये पांच अंग संपूर्ण भूमिके साथ लगाकर 'पंचांग प्रणाम' तीन दफै भूमिकों पूंज प्रमार्जकर करना सो तीसरा प्रणाम. ४ पूजात्रिक यथा अवसर फजर, दुपहर और साम, ये तीन वरूतमें प्रभुकी यथोचित उत्तम द्रव्योंसें पूजा करनी गृहस्थोंकों कही है. उसमें प्रात:कालमें वस्त्रादिककी शुद्धिसें वासक्षेपकी पूजा, मध्याहमें सुगंधी जल, चंदन, पुष्प, धूप, दीप, अक्षत, फल और नैवैध द्वारा अष्ट प्रकारी पूजा, और संध्यामें धूप दीपादिकसे पूजा करनेका अधिकार है उस मुजब भाविक सदगृहस्थ यथाविधि भभुभ शिकरके स्पद्रव्यकी सफलता ले सफै. जो जो द्रव्य यानि शुद्ध जल-चंदन-फल वगैरः प्रभुके अंगपर पड़ा सकै वो पो द्रव्यसें 'अंगपूजा करनी सो प्रथम पूजा. जो जो द्रव्य यानि सुगंधी धूप, दीप अखंड चावल, फल, नैवेद्य वगैरः प्रभुकी आगे ढोक-रखकर
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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