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________________ --१६ वीर. वीर० ८ वीर० ९ सत्ययाये' सुघोषा बजावी, रोमरोम उल्लासीएरे, भाव पूजा लयलीन होता, अचल महोदय पामीएरे. भाव पूजा अभेद उपासक, साधु निर्ग्रये अंगीकरीरे, द्रव्य पूजा भेद उपासक गृह-मेधीने नित्य वरीरे. द्रव्य शुद्धिं भाव शुद्धि कारण, जिन आना" अविधारीएरे, ध्याता ध्येय ध्यानरूप एके, अजर, अमर पद पामीएरे. सालंबन निरालंबन भेदे, ध्यान हुताश जलावीएरे, कंचनोपलने न्याये, करीने, चैतन्यता अंजवालीएरे. कर्म कठीन धन नाश करीने, पुर्णानंदता पामीरे, रमतां नित्य अनंत चतुष्के विजय लीला नित्य जामीएरे. वीर. ११ १ सरस शांति सुधारस सागरं, शुचितरं गुणरत्न महागरं; भविक पंकज बोध दिवाकरं, प्रतिदिनं प्रणमामि जिनेश्वरं. वीर. १० 1 २ अधाऽभवत् सफलता नयन द्वयस्य, देवत्वदीय चरणांबुज वीक्षणेन; अद्य त्रिलोक तिलक प्रतिभासते मे, संसार वारिधिरियं चुलुक प्रमाणः ३ शम रस निमग्नं दृष्टि युग्मं प्रसन्नं, वदन कमल मंकः कामिनी संग शून्य; कर युगमपि यत्ते शस्त्र संबंध वंध्यं, तदसि जगति देवो वीतराग स्त्वमेव. १ उत्तम परिणाम २ घंटा. ३ सेवक - आराधना करनेवाली. ट गृहस्थ, श्रावक. ५ फरमान. ६ सुवर्ण और मोट्टीका द्रष्टांत सें. ७ 4 आत्मस्वरूप. ८ अनंत ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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