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________________ १५३ चौदहवाँ-श्रीजिनेश्वर देवका यथाशतित त्रिकाल पूजन स्वद्रव्यों द्वारा करनी. प्रभात पखत हाथ पाँव वगैरः शरीरकी तथा वस्त्रकी शुद्धि करके अष्टपट मुखकोष बांधकर उत्तम पासक्षेपसे, दुपहरके वरून ५-८-१७-२१ प्रकार की पूजा, औ संध्या१०त धूप दीपसे भाविक आत्मा भक्ति भरपूर भगवंतज़ीकी भक्ति किया कर. द्रव्यशक्तिहीन मात्र भावभक्ति ही किया कर. जिनमंदिर निस्तिही आदि दशत्रिक पांच अभिगम वगैरः प्रमाद रहित समाल लिया कर छोटी पड़ी आशातनाए समझकर श्री जिनमंदिर या श्री गुरु द्वारमें अवश्य दूर करै इस संबंध का विशेष अधिकार श्री देववंदनभाष्य मूल टीका थापालापबोधसे जाननेकी दरकारपाला हो सो देख लेय. पंद्रहवाँ-प्रभुजीकी द्रव्यपूजा किये वाद भावस्तव-स्तुति जरुर करना चाहिये. सो चैत्यवंदनाजधन्य-मध्यम-उत्कट असे तीन मुख्य प्रकार है. जघन्य एक स्तुतिसें, मध्यम चार स्तुतिसें और उत्कृष्ट आठ स्तुतिओं से, या जघन्य एक श्लोकसें, मध्यम एकसे ज्यादे लोकसें और उत्कृष्ट १०८ श्लोक काव्यसें चैत्यवंदन करना. स्थिरता योगसे ३यावही पूर्वक पैत्यवंदन विधिका उपयोग करना. ___सोलहवाँ-सुगुरु-शुद्ध तत्वोपदेशककी सेवा करनी और सुंदर भक्ति करनी, स्तवनादिक वहुतमान अवश्य करनो, लायक हैं. आप पवित्र आचारको पालन करके हर हमेशा शासनकी प्रभावना कर वैसे सदगुरु बडे भाग्य योगसेंही प्राप्त होते हैं. -पूर्व पुण्ययोग- •
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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