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________________ १४० रहने पर भी आपकी. साहुकारी दिखाया करनी, केवल दंभ त्ति सेवन करते हुवे परभी ऊपरसें अच्छा आडंबर रखना-बुग लेफी वृत्ति धारनकर जगतकों ठगलेना, आप अनेक दोपदूषित होने परभी लोगोंकों जानने में न आवै इतनाही नहीं, मगर आप महा गुणशाली है औसा लोग समझे वैसे प्रपंचसें वर्तन चलाकर आपकी पुजा मानत विशेष होवै उस तरह भवका भय वाजू छोडकर चलन चलाया जाय वो सब इन पापस्थानकके अंतर्भुत है. श्रीमद् यशोविजयजीने कहा है कि-'ए तो. विषन वळिय वधार्यु, ए तो शस्त्रने अबढुं धार्यु, ए तो सिंहनुं वाळ वकार्यु हो लाल, माया मोस न कीजे.' परावर विचार कर देखने मालुम होता ही है कि-ये सत्तरहवा पापस्थान सबसे भारी पापजनक है औसा जानक सज्जन जनको इनसें बहुतही डरते रहने की जरुरत है. (१८) अठारहवें मिथ्यात्व शल्य-विपरीत दृष्टि शल्यकी तरह एक भवमें नहीं; मगर अनेक भवमें पीडा देनसें मिथ्यात्व शल्य कहा जाता है. आभिग्रहिक, अनभिग्रहिक, अनाभोगिक, सांशयिक और आभिनिवेशिक असें पांच भेदका कहा है. अभिग्रह थानि बडो आग्रह, आपके प्रचलित पंथकों केवल आपके सांप्रदायिक शास्त्रों के आधारसे मध्यस्थ पनेसे शुद्ध धर्मरहस्य जाने विगर और विवेक पूर्वक सुन्ने या रत्नकी परिक्षाकी तरह उसकी परीक्षा किये विगर योंके धुंही मिथ्या आग्रहसे लटककर पकड रहना, और कोइ परोपकारशील महात्मा शुद्ध धर्म रहस्य सम्यम् समझाये तोभी
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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