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________________ १३१ संवोधन पूर्वक बोलना, मरजी मुजव तुंकार रेकार अनिष्ट संबोधनसें कभी न बोलना. और बोलनेके पेस्तर जो वौलने की इच्छा हो उस वचनों का परिणाम क्या आयगा वो सब सोचकर हितकारक हो वही बोलना; मगर साहस करके एकदम बोलना और बोल दिये वाद पिछताना पडे वैसा न बोलना चाहिये. आगे पीछेका संबंध पूरे पूरा ध्यानमें लेकर पीछे किसी तरहकी धर्मकों हरकत न आवै वैसा और वीतराग वचन सापेक्ष होनेसें एकांतनिश्चय सद्गुणकी पुष्टिही करे वैसा वचन विवेक युक्त शोचकर बोलना; क्योंकि सापेक्ष वीतराग वचनोंका रहस्य विचार कर लक्षमें ले-बोलना कि जिरसें बोलने हारेको सत्य व्यवहार होनेसें सदैव सुख प्राप्त होता है, और निरपेक्षपनेसे यानि वीतराग वचनका अनादर कर मरजी मुजब बकवाद करनेवाले और मरजी मुजब चलने वालेका झूठा व्यवहार होनेसें कुल जगह नुकसानी प्राप्त होती है. सर्वज्ञ - केवली के वचनको यथार्थ ग्रहन कर अमल में रख्खे fart कभी भी किसी जीवका कल्यान हो वाही नहीं है और न होगा. जैसा समझकर सहृदय सज्जन हमेशा उनके ही अक्षरशः अंगीकारकर अमल में लेनेकी सावधानी धारन करते है, एक क्षण भरमी प्रमाद नहीं सेवन करते है. कदाचित् उसी मुजव न आचर सकैं यानि आप्त उपदिष्ट मार्गका यथार्थ अमल न कर सकें; तदपि उन मार्गकी दृढ श्रद्धा सह शुद्ध परूपणा करनेमें चूक जाते नहीं प्रमादसें परवश हुए प्राणीकों इन पंचमकालमें शुद्ध परूपणा
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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