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________________ कोउ स्वयंभूरमणको, पावै जो नर पार; सोभी लोभ-समुद्रको, लहे न मध्य प्रचार. तथापि लोभ सागरका पार पानेका सच्चा और उमदा इलाज फक्त संतोष ही है. ज्यौं ज्यौं लाभ मिलता जाय त्यौं त्यो लोभीका लोभभी पता ही जाता है. यदि आकाशका अंत आवै तो लोभी की इच्छा का अंत आवै. अर्थात् आकाशकी तरह लोभीकी इच्छा __ अंत रहित होनेसें तृष्णाका पार नहीं आता है और उनको बहुत दुःख उठाना पडता है. कहा है कि:-'न तृष्णा परो व्याधि' यानि तृष्णासें उपरांत कोई कष्ट साध्य व्याधि ही नहीं है सब सुखका साधन संतोष है. यत:-'न तोषात् परमं सुखं '-यानि संतोषसें ___ ट कोई दूसरा सुख नहीं है; वास्ते सच्चे सुखार्थीजनकों संतोष ही सेवन करना. (१०) दशवें राग-रंजयत्यसौरागः-आत्माका शुद्ध स्फटिक जैसा स्वरुप बदलकर जिसके संगसे रंजित हो जाता है सो ही राग. राग मोहराजाका पाटवी पुत्र युवराज है, और उनका परा क्रम केसरीसिंह जैसा होनेसें वो अकेलाही जगत मात्रकों पराभव कर सकता है. मैं और मेरा-ममता५ फंदमें वो मुग्ध मृगोंको फंसाथा ही करता है, उनकी हामने टकर लेनी कुछ मरल नहीं है। उस्से अप्रमत्त पुरूष ही विवेक शिखर पर चडकें टक्कर ले सकते हैं; तौ भी ज्यौं ज्यौं मोह ममताको त्यागकर धर्म महारानका शि सण लिया जाता है त्यौं त्यौं रागादिक दुश्मन कम ताकतवाले हो ' अंतमें भाग जाते है पानि नाश हो जाते हैं.
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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