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________________ १२७ मेशां सावध रहना उत्तम बुद्धिवंत जनोंको उचित है. जहांतक उभय लोक विरुद्ध मांस भक्षणादि महा पापोंका त्याग नहीं किया है. वहांतक मोक्ष संपादक विवेक आदिक उत्तम गुणोंकी प्राप्ति होनी पहुत मुश्किल है; वास्ते अनंत दूःख दावानलमें सींझानेवाले जैसे महा दोषोंका सर्वथा त्याग करनेके लिये सच्चे सुखके कामीजनोंकों तत्पर होनाही मुनाशिव है. (पापस्थानक परिवजन.) समस्त पापरुप कीचडको दूर कर कर्म संबंधी अनादि मलीन आत्माको निर्मल करने के वास्ते परम पवित्र परमात्म करुणावंत प्रभुने पापका स्वरुप जैसा कहा है वैसा ही समझकर उसको ज्यौवनसके त्यौं सावध हो त्याग करने का फरमाया है. वो पाप मलीन अध्यवसाय जनित होनेसें असंख्य जातिका होने पर भी ज्ञानी पुरुपोंने स्थूल बुद्धिवालोंको समझाने के लिये उनके १८ पाप स्थानमें समावेश करके दिखलाया है. वो १८ पाप स्थानके नाम बहुत करके अपन हर हमेशा मुंहसें पढते ही रहते है और उनका मिथ्या दुष्कृत भी दिया करते है तो भी उनका यथार्थ स्वरूप समझने में अपन बहुत पश्चात् हैं, और उससे अपना पैसा पाठ पढ़न वो तो रामनाम पढ़ने जैसा अर्थ-तत्व शून्य है. या कुहारके मिथ्या दुष्कृत जैसा शून्य आशयवाला होथै उसमें क्या आश्चर्य हे ! अपना कहना सार्थक कर अपन, उन उन पापके पोजैसे मुक्त हो वैसें उन उन पापस्थानको बराबर समझकर लक्षमें रख
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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