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________________ १२३ उनको उनके कुतकोंकी समाधानी करने के लिये श्री उमास्वाती वाचकृत श्रावक प्रज्ञासिकी मूल टीका या भाषांतर मनन पूर्वक पांचनेकी या सुन्नेकी खास मलामन करते है. इन संसारमें भ्रमण करने के मूल कारणभूत राग द्वेष और मोहादिकसे सर्वथा मुक्त भये हुवं सवेश प्रभुके परम पवित्र प्रवचनपर पूर्ण विश्वास रखना ये भवभीर भव्य सत्खाका खास कर्तव्य है. वैसे सर्वज्ञ प्रभुके साक्षात् विरहसे सर्वत्र अवरोधी आगम या आगमघरही आत्मार्थी मुमुक्षुवर्गकों, और दुःखसे डरकर सुखकी चाहत रखनेवाले प्राणी ओंकों खास निर्यामक कप्तान है. उन्हीकी उपेक्षा करके स्वच्छंदतासे केवल विषयसुखकी ही आशंसामें गिरनेवाले पापी प्राणि परभवकी अंदर, और कचिन इस भवकी अंदर भी महा पश्चाताप पाते है. उन्हीके हितकी खातिर यहाँपर प्रशंगवशात् कुछ लेश मात्र कहा गया है. बाकी तो पूर्व महापुरुषोंने तो वो मांसादिक महा व्यसनों के सेवन करनेहागेकी भइ हुई और होती हुई दुर्दशा वर्णन करके अनेक तरहसे अनेक जगह वै महाव्यसनोंकी मना की है. और वै मांसादिक महान् व्यसनोका त्याग करनेवाले सत्पुरुषों के दृष्टांत नोंध लेकर दूसरे भव्य प्राणियोंको प्रेरणा की है. बुद्धिवंतकों कीइभी काम उनका आखिरी सार निगाहमें अच्छे विचारयुक्त रखकर करने का है, वैसा योग्य विचार किये बिगर जो लोग साहस करते हैं उन्को बहुत करके पश्चातापही करनेका प्रसंग आता है. शास्त्रकारोंने कहा है कि:
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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