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________________ १०४ चतुर विरंची विरंजन चाहे, चरन कमल मक दरी; જો હતો મરમ વિહાર વિવાવ, શુદ્ધ નિરૈનન પડી. देव असुर इंद्र पद चाहूँ न, राज न काज समाजरी; संगति साधु निरंतर पाउं, आनंद घन महाराजरी. ( पद नौवॉ.) साधु. ३ पद दशवाँ. योग युक्ति जाने बिना, कहा नाम घरावे ? रमापति कहे रंककु, धन हाथ न आवै. योग घरी माया करी, जगकों भरमावैः સાધુ. ૪ पांचों थोडा एक रथ जुता, साहिब इनका भीतर श्रुता. पांचों. खेडू उसका मदमतवारा, घोडोंकों दोरावनहारा. पांचों. १ थोरे मुँठे और और चाहै, रथकों फिरिफिरि अवट वाहै; विषम पंथ चहु ओर अँधियारा, तोभी न जागै साहिव प्यारा. पां. २ खेडू रथकों दूर दोरावै, वे खबर साहिब दुख पावे; रथ जंगल में जाय असूझे, साहिव सोया कहुअ नं झे. पां. ३ चोर ठगारे वहां मिल आये, दोनूको मद प्याला पाये रथ जंगलमें जीरण कीना, माल घनीका उदाली लीना. पांचों. ४ धनी जागा तब खेडू बांधा, रास परोंना ले शिर सांधा; चोर भगे रथ मारग लाया, अपना राज विनयजी उपाया. पां. १ ( विनय विलास. ) योग. १
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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