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________________ १०२ कूडकपट परद्रोह करत तुम, अरे परभवसे क्यों न डरो चित्त. २ चिदानंद ये नाहि मानो तो, जन्म मरन भव दुखमे परो. चित्त. ३ (पद पांचवा-राग विहाग.) तज मन कुमता कुटिलकों संग; याके संग कुबुद्धि उपजत है, परत भमनमें भंग. तजमन. १ कहा भयो पय पान पिलावत ? विष न तजत भुजंग. तज. २ कउएको क्या कपूर चुगावत ? श्वान हवाबत गंग. तज. ३ खरको क्या अरगना लेपन, मर्कट भूषण अंग. तज. ४ ज्यौँ पापान बान नहि भेदत, रातो भयो निषग. तज. ५ आनंदधन प्रभु कारी कंबरीयों, चढत न दूजो रंग. तज. ६ परोपकारपरायण श्री आनंदघनजी वगैरा तत्वदर्शि महात्मा भी पुनः प्रमादविष दूर करने के संबंध वचनामृत छिडकनेके साथ कहते है कि 'अहो भव्यजीव ! तुम श्री जिनराज प्रभुजीक चरणका शरण अवलंबन करो.' (पद छा-राग अलैया बिलावल.) असें जिन चरणे चित लाओरे मना, असें अरिहंतके गुन गाओ. रे मना. असें जिनउदर भरन कारनेरे, गौओं बनमें जाय; चारो चरै चिहु दिश फिरै, वाकी सुरत बछरुपे मांय रे. मना औस. १ चार पांच साहेलीयारे, हिल मिल पानी जाय;
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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