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________________ ९९ अच्छा है. " परमार्थ खुल्ला ही है कि निद्रादेवीका पराजय करनेवाला धर्मोजन - अप्रमादीजन अपना और पराया अवश्य कल्याण कर सकता है, और महा प्रमादी पापी मनुष्य मदोन्मत्त हो जागृत होनेपर भी अवश्य अहितकाही पोषण करता है. वास्ते मोक्षार्थी सज्जनोंकों ज्यौ वन सके त्यौं निद्राका पराजय कर उन्हीकों नियममें रख स्व परहित फिक्र के साथ साध्य कर यह अमूल्य मानवभव सफल करना. तथास्तु ! विकथा चतुष्क- यद्यपि मुख्यतासें राजकथा, स्त्रीकथा, और भोजनकथाही विकथामें गिनी जाती हैं; क्यों कि मुग्ध जीवोंकों वहुत करके ऐसेही वावत ज्यादे प्यारी होनेसें चित्तकों गमड़ा देती है; तथापि शुद्ध साध्य दृष्टि शिवाय जो जो जितनी जितनी शुद्ध साध्यकों छोड़कर मरजी मुजब शास्त्र मर्यादा जाने किये विगर बातें करते हैं वो वो सभी उतने उतने हिस्सेसें त्रिकथारुपही गिनाती हैं. इस वास्तेही भवभीरु गीतार्थही शास्त्रोपदेश देने लायक गिने जाते हैं, यद्यपि धर्मोपदेश कथा उत्तम है; तदपि उत्तम धन्वंतरी वैद्य जैसें हरएक रोगी के रोगका निदान संमाप्ति आदि तपास कर गंभीरतासें उसको उचित औषध मात्रा पथ्य सह बतलाता है; तैसेही भिन्न भिन्न रुचिवंत भव्यजीवों के भवरोग-कर्मरोग के नाश निमित्त भवभीरु गीतार्थ ( सुत्रार्थ इन उभयके पारंगत ) ही समर्थ गिने जाते हैं. वैसे समर्थ भाव वैद्य भव्य जीवोंके भवरोगका कारण गांभिर्यतासें शोचकर उनके भावरोगकों निर्मूल करनेकी बुद्धिसे प्रेर
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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