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________________ लोभ महादोष दूर करने के वास्ते उपाध्यायजी कहते है किः आगर सवही दोषको, गुण धनको बड चोर; व्यसन चेलिको कंद है, लोभ पास चिहुंऔर. ८ लोभमेघ उन्नत भये, पापपंक बहु होत; धर्मस रति नहुँलहै, हे न ज्ञानज्योत. ९ कोड स्वयंभूरमणको, ज्यों नही पावै पार; त्यौं कोउ लोभसमुद्रको, लहै न मध्य प्रचार. १० ७. चारों प्रकारके कपाय संसारवृक्षके प्रबल मूल है-आधारतभू है उनका छेदन किये विगर संसार वृक्ष निमूल नहीं होता है. राग और देष भी उन्हीके ही अंगीभूत है; नथापि संसारका अंत नहीं. . श्रीमद् न्यायविशारद फरमाते है किःराग द्वेष परिणाम युत, मनहि अनंत संसार तेहिज रागादिक रहित, जानि परमपद सार. निष्कायताही आत्माका सहज धर्म है; तदपि उपाधि संबंधसे ही कपाय प्रभवता है, यत: जिम निर्मलतारे रत्न स्फटिक तणी, तेम ए जीव स्वभाव ते जिनवीरें रे धर्म प्रकाशियो, प्रबल कपाय स्वभाव-श्रीसि. तथाः- .. जिम ते राते रे फुलहे रातडं, शाम फुलथी रे शाम; . पाप पुण्यथी रे तिम जगजीवते, राग देष परिणाम. श्रीसि. ११
SR No.010240
Book TitleJain Hitbodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKarpurvijay
PublisherJain Shreyaskar Mandal Mahesana
Publication Year1908
Total Pages331
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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