SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 64
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-दर्शन अथवा बौद्ध-दर्शन हिन्दू-दर्शन से भिन्न है, ऐसा मानकर साम्प्रदायिक आचरण करना एक बहुत भयंकर भूल व घृणित दुराग्रह है। भारतीय समाज और दर्शन में जव तमाम कमजोरियां आ गयी थीं तो ऐसे समय में भगवान महावीर ने बहुप्रचलित दर्शन में विभिन्न प्रकार के सुधार किये तथा एक परिष्कृत विचारधारा समाज को दी। यही कारण है कि हिन्दुदर्शन से जैन-दर्शन को भिन्न नहीं माना जा सकता।' यह असम्भव नहीं कि जैन प्राचार्यों के विश्लेषण को वैष्णव अस्वीकार करें। उसी तरह वैष्णव मान्यताओं को भी जैन आचार्य स्वीकार न करें। लेकिन यह विचार भेद जैनों को हिन्दुओं से अलग नहीं कर सकता। दोनों एक ही नदी की दो धारायें हैं, वे उसी तरह दो नजर आती हैं, जैसे समुद्र से मिलने से पूर्व गंगा सहस्त्र धाराओं में बहती है। प्रादि और अन्त दोनों स्थितियों में वे धारायें एक हैं, नाम भेद तो क्षणिक है। जैनियों को हिन्दू विरोधी बताना उसी प्रकार है, जिस प्रकार सूर्य पर कीचड़ उछालना । जैन धर्म हिन्दु धर्म का सहोदर अंग नाना जाता है, जैन धर्म की प्रगति को हिन्दु धर्म की प्रगति से अलग नहीं समझा जा सकता। इतिहास के अवलोकन से यह पता चलता है कि प्राचीन काल में जैन जाति नहीं थी, पर इस प्रकार का धर्म अवश्य था। जितने तीर्थकर हुये हैं सभी इसी हिन्दू जाति में उत्पन्न १-अग्नि परीक्षा ? चिन्तन का आव्हान-पृ० ३०-दैनिक जागरण कानपुर ६-११-७० २-नवभारत टाइम्स, दिल्ली (अ० परि० चि० का प्रा० पृष्ठ - -
SR No.010239
Book TitleJain Hindu Ek Samajik Drushtikona
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mehta
PublisherKamal Pocket Books Delhi
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy