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________________ जैन तथा वैदिक धर्मावलम्बी की समाज व्यवस्था में कम काण्डों, प्राचार-विचार, रहन-सहन, वेषभूषा, कुटुम्ब, स्त्रियों का परिवार में स्थान, विवाह-पद्धति एवं गुरु तथा पुरोहित की मान्यतायों, धार्मिक विश्वासों के अन्तर्गत दान-पुण्य, व्रत-उपवास. धर्म-कर्म, कर्म-फल, ब्रह्मचर्य, गौभक्ति, पुर्नजन्म आदि सभी गुण भारतीय संस्कृति के हैं और इनकी मान्यता दोनों ही पक्षों में समान रूप से पाई जाती है । अतः भारतीय संस्कृति के स्वरूप स्वभाव और विकास की अत्यन्त प्राचीन काल से चली याने वाली धारावाहिकी जीवित परम्परा को ठीक-ठीक समझने के लिए उसके इतिहास को व्यापक रूप से जानने की प्रावश्यकता है। वाहरी जातियों के आक्रमणकाल में हिन्दुस्तान की प्रभुसत्ता वैदिक धर्मावलम्बियों के हाथ में थी । इसलिये 'हिन्दू' शब्द इन्हीं के अर्थ में रूढ़ हो गया । आज इसी 'हिन्दू' शब्द के सही अर्थ को समझने और उसके व्यवहारिक प्रयोग की अधिक आवश्यकता है। हिन्दू संस्कृति सनातन है, जिसकी अनेकानेक शाखाप्रशाखायें वटवृक्ष के समान विभिन्न सम्प्रदायों और पन्थों के रूप में विश्व में चारों तरफ फैलती गयीं, जबकि समस्त हिन्दुओं की संस्कृति प्रत्यक्ष रूप से एक ही है। इसी कारण हिन्दू संज्ञा से विशेपित जैनियों को 'हिन्द' कहने में गर्व का अनुभव करना चाहिए। जैन धर्म पर किसी एक जाति, समाज व संघ का अधिकार नहीं है, यह सबका है, इसे पौषित करने वाली जातियाँ और संघ अनेक हैं । जिस व्यक्ति ने जैन सिद्धान्त के अनुरूप
SR No.010239
Book TitleJain Hindu Ek Samajik Drushtikona
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mehta
PublisherKamal Pocket Books Delhi
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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