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________________ ( १७६ ) इस आशा का उल्लंघन करेगा, वह राजद्रोही और सम्प्रदायद्रोही होगा। कितनी गहरी सामन्जस्य भावना इसमें विद्यमान है कि व्यवस्था की दृष्टि से वैष्णव व जैन दोनों ही अपनी सम्पूर्ण आर्य संस्कृति के संदर्भ में इतने अभिन्न हैं कि उनके बीच किसी भी प्रकार का परस्पर असम्बद्धता की कल्पना अपराध है। . वर्ण व्यवस्था को ही लें तो यह निर्विवाद है कि मूल वर्ण व्यवस्था कर्म के आधार पर एक गुणात्मक विभाजन का परिणाम थी, जिसमें परिस्थितियों और प्रगति के समान्तर अन्य धर्मों का काल में चलकर समावेश होता गया और अनेक आचार्यों ने भारतीय संस्कृति के समसामयिक भौतिक चिंतन के अनुरूप अनेक दिशा-क्रम की स्थापना की तथा विभिन्न धार्मिक मतों और व्यावहारिक मान्यताओं के समग्न अन्तकर्म में सभी अन्तविरोधों और प्रायोगिक असहिष्णुता के विपरीत निःसंदेह एक स्वस्थ भारतीय समाज की संरचना, इस बात का प्रमाण ह कि आज भी यदि कोई व्यक्ति वैष्णव धर्म छोड़कर जन धम स्वीकार कर लेता है तो किसी प्रकार की कूदृष्टि का शिकार नहीं होता और न उसके प्रति किसी प्रकार के द्वेष की उत्पत्ति होती है। आज भी जैन व वैष्णवों के ऐसे सैंकड़ों कुटुम्ब मिल . सकते हैं जो एक संगठन के अन्तर्गत भी अलग-अलग जैन व वैष्णव धर्म का पालन करते हैं । वहुत से ऐसे मन्दिर अाज भा इस वात के जीवन्त साक्षी हैं कि वहां वैष्णव, शैव, आदि सभा प्रास्था विश्वास और श्रद्धापूर्वक उसे अपने तीर्थ मानत है । - १. जन-धर्म-सिद्धांताचार्य कैलाश चन्द शास्त्री पृ० ६३
SR No.010239
Book TitleJain Hindu Ek Samajik Drushtikona
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mehta
PublisherKamal Pocket Books Delhi
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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