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________________ की स्थिति पैदा करने के लिए होती है। जगद्गुरू शंकराचार्य का अद्वैत, श्री रामानुजाचार्य का विशिष्ठा त आदि सिद्धान्त देखने में एक दूसरे से भिल प्रतीत होते हैं और उनके अनुयायी परस्पर भेद की कल्पना कर सिद्धान्तों की पृथक-पृथक सत्ता स्वीकार कर लेते हैं, परन्तु यथार्थ के दर्शन से भेद-भावना की निवृत्ति हो जाती है और सभी सिद्धान्त एक ही भगवान् द्वारा प्रकट होने के दृष्टिकोण का निर्माण हो जाता है। त्रेता के राम, द्वापर के कृष्ण और कलियुग के बुद्ध एवं महावीर स्वामी एक ही भगवान् के समयानुकूल रूप हैं। बड़ी ही प्रसन्नता की बात है कि जैन धर्मावलम्बी श्री रतनचंद जी मेहता, गंजबासौदा निवाती ने व्यापार-बहुल-जीवन व्यतीत करते हुए भी इस सर्वहित पिणी समन्वयात्मक दृष्टिकोण के साथ "जैन-हिन्दू एक सामाजिक दृष्टिकोण" नामक मंथमें वड़ी ही खोजपूर्ण प्रभा के साथ हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्म की मान्यताओं पर विद्वतापूर्ण विवेचन कार इन धर्मों के बीन उत्पन्न हुई भेद की खायी को भरने का स्तुत्य प्रयास किया है। दर्शन-शास्त्र एवं धर्म विषयक ग्रंथों के अध्येताओं के लिए एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण देने वाले इस अनुमम ग्रंथ के प्रचार-प्रसार की शुभकामना मैं भी करता हूँ। सत्संग भवन सरसैया घाट स्वामी रामनाथ कानपुर।
SR No.010239
Book TitleJain Hindu Ek Samajik Drushtikona
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Mehta
PublisherKamal Pocket Books Delhi
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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