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________________ सापेक्ष होता है तथा चेतनाशक्ति के सम्पूर्ण विकास के समय प्रकट होता है । कोई भी वस्तु या भाव ऐसा नहीं है जो इसके द्वारा न जाना जा सके । केवलज्ञान भों और पार्थी को जानने में सक्षम है 140 अवधिज्ञान की प्रवृत्ति सर्वपारहित सिर्फ मूर्त द्रव्यों में होती है । मन:पर्ययज्ञान की प्रवृत्ति उस मूर्त द्रव्य के सर्वहित अनंतवे भाग में होती है । केवलज्ञान की प्रवृत्ति सभी द्रव्यों और सभी पयायों में होती है । इस प्रकार जैनदर्शन में त्रिकाल, त्रिलोकवर्ती समस्त प्रोयों के प्रत्यक्षदर्शी के अर्थ में केवलज्ञान का प्रयोग किया गया है। इसी अर्थ में जैनदर्शन में कहा गया कि जो एक को जानता है वह सब को जानता है । जैनो का विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति में केवलज्ञानी होने की शक्ति है कि ज्ञान आत्मा का स्वभाव ही है, किन्तु आवरणों के कारण आत्मा का यह स्वभाव धानक जाता है 141 जतः तार्किक रूप से यह निष्कर्ष निकलता है कि एक स्थिति ऐसी संभव है कि जब आपरणों का विनाश हो जाये और उस स्थिति में स्वाभाविक रूप से आत्मा का स्वभाव ज्ञान प्रकट हो जाये । जैनों के अनुसार आवरण व्यक्ति के कमोंके परिणाम होते है । 42 अतः कमों के क्षय के साथ आवरणों का विनाश होना भी अवश्यम्भावी है। जैसा कि हेमचन्द्र का तर्क है कि यदि ज्ञान में मात्राभेद माना जाता है तो इसका अभिप्राय है कि पूर्णज्ञान भी संभव है जिससे निष्कर्ष निकलता है कि ऐसे व्यक्ति का अस्तित्व संभव है जिसे सभी वस्तुओं का पूर्ण ज्ञान होता है । दूसरे शब्दों में, केवलान संभव है 143 हेमचन्द्र यह भी कहते हैं कि ज्ञान में विकास की प्रक्रिया होती है तो तार्किक दृष्टि से इस विकास की प्रक्रिया का कहीं अंत भी होना चाहिए । प्रक्रिया का अंत नहीं होगा जहा ज्ञान पूर्ण और अनंत कहा जा सके । उ यह स्थिति
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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