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________________ आगे जैनों का यह भी कहना है कि प्रामाकरों का यह मत भी सही नहीं है। प्रत्यक्षीकरण और स्मरण की दोनों प्रक्रियायें स्वयं चेतन प्रक्रियायें हैं। जैनों का कहना है कि यदि अपरोक्ष प्रत्यक्षा अपरोक्ष प्रत्यक्ष के रूप में अनुभूत हुआ और स्मरण स्मरण के रूप में तो वहा भ्रम कैसे हो सकता है। यदि यह कहा गया कि । भ्रम तब उत्पन्न होता है जब प्रत्यक्ष का तत्व स्मृति के तत्व के रूप में उत्पन्न होता है अथवा जब स्मृति का तत्व प्रत्यक्ष के तत्व के रूप में उत्पन्न हुआ, क्यों कि तब तो जैनों के मत में भ्रम का यह सिद्धान्त व्यवहारिक रूप से विपरीत ख्याति है। इसी भाति विपरीत ख्याति और अद्वैतवादियों में भी भ्रम के विषय में तर्क-वित हुआ । विपरीत ख्याति की आलोचना करते हुये अद्वैतवेदान्ती कहते हैं 'कि किसी अन्य स्थान-काल में उपस्थित चांदी इस समय इन्द्रिय प्रत्यक्ष का विषय नहीं हो सकती क्योंकि यह इस समय इन्द्रियों के समक्ष प्रस्तुत नहीं है। अभिप्राय है कि वर्तमान समय और स्थान में भतकाल के विषय का प्रत्यक्ष संभव नहीं है। इनके मत में यदि शीप चादी से बिल्कुल भिन्न है तो उसके साथ तादात्म्य कैसे हो सकता है । विपरीतख्याति में बाह्य वस्तुओं का लौकिक और अलौकिक रूपों में विभाजन नहीं है। यहाँ बाह्य वस्तुओं का ज्ञान संभव है। अतः अनिवचनीयख्यातिवाद संभव नहीं है। साथ ही विपरीतख्यातिवाद के अनुसार बाह्य वस्तुयें पूर्णरूप से ज्ञानरूप' या शून्यरूप या पूर्णरूप से सत् नहीं है। अतः यहा आत्मख्याति, सख्याति और असत्या ति भी संभव नहीं है। विपर्यय का अभिप्राय है अन्य आधार में अन्य प्रत्यय का होना । सीप में सीप का ही प्रत्यय अविपरीत प्रत्यय है जबकि रजत का प्रत्यय विपरीत प्रत्यय । मन में विद्यमान या उत्पन्न चादी को बाह्य वस्तु में देखना ही यहा भ्रम है । 35 अकलंक की युक्तियों के आधार पर विद्यानन्दि ने भ्रमज्ञान का भी प्रामाण्य सिद्ध किया है। इन्द्रिय दोष के कारण दो चन्द्रमा दिखायी देने में संख्याश के
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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