SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 166
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ के कारण होता है। प्रत्यक्ष देखे गये तत्व और स्मरण किये गये तत्व दोनों ही सत्य होते हैं किन्तु दोनों में जो भेद हैं भ्रम उसकी आख्याति या भेद है ।26 __जैन जो भ्रमात्मक प्रत्यक्षा में वैपरी त्य की बात करते हैं तो मीमांसक पूछते हैं कि भ्रमात्मक प्रत्यक्ष में क्या वैपरीत्य होता है १ मीमांसकों के मत में स्वयं भंम के विषय को वास्तविक विषय से 'विपरीत नहीं कहा जा सकता क्योंकि इसमें अर्थ "कियाकारित्व नहीं होता अर्थक्रियाकारित्व-नैयायिकों के मत में सत्यता की कसौटी है। । इसके साथ ही मीमासक वस्तु की वास्तविकता को सदैव उसकी क्रियात्मक क्षमता पर निर्भर नहीं मानते । पानी के एक बुलबुले का दृष्टान्त दिया जा सकता है । वह बुलबुला जैसे ही इस पर हवा बहती है नष्ट हो जाता है । जिस क्षण बुलबुले का प्रत्यक्ष किया जाता है उस समय उसमें कोई व्यवहारिक क्षमता नहीं होती। हवा उसको नष्ट कर देती है और उसके प्रत्यक्षीकरण के कुछ समय बाद भी उसमें कोई कियात्मक क्षमता का अनुभव नहीं होता। बुलबुले में कोई क्रियात्मक क्षमता नहीं दिखाई पड़ती फिर भी बुलबुला वास्तविक है । अत: क्रियात्मक क्षमता की अनुभूति और अनानुभूति के आधार पर सत्ता के विषय में तर्क नहीं किया जा सकता 127 __जैनों का यह कथन कि भ्रमात्मक वस्तु वास्तविक वस्तु के विपरीत है इसकी भी मीमासक आलोचना करते हैं। मीमांसकों का कहना है कि भूम के विषय को 'विपरीत नहीं कहा जा सकता क्योंकि हमारा प्रत्यक्षीकरण उसे ऐसा ही प्रस्तुत करता है। यह पूछा जा सकता है कि कैसे किस प्रत्यक्षीकरण में भ्रम का विषय वास्तविक विषय से विपरीत प्रतीत होता है। निश्चित ही स्वयं भ्रमात्मक प्रत्यक्षीकरण में नहीं। भ्रम का जहाँ तक संबंध है प्रत्येक प्रत्यक्षीकरण अपने विषय को वास्तविक सा प्रस्तुत करता है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि भ्रम पूर्ववती ज्ञान द्वारा असत्य सिद्ध किया जाता है। पूर्वज्ञान भम के पूर्ववर्ती ज्ञान के रूप में उत्तरवती को गलत सिद्ध नहीं कर सकता क्योंकि जबकि पहले वाला ज्ञान मस्तिष्क में होता है तो बाद वाला उत्पन्न नहीं हो सकता । न ही यह कहा जा सकता है कि पूर्वज्ञान भ्रम के सहवती के रूप में इसे असत्य सिद्ध करता है क्योंकि ज्ञान के दो प्रकारों में सह अस्तित्व होना
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy