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________________ 141 मानकर रागद्वेष करता है । इस अज्ञान का नाश होने पर ही आत्मा परमानंद भय होता है। आगे मादल्लवल कहते हैं रामादि भावकम मेरे स्वभाव नहीं पया कि वै तो कर्मजन्य हैं मैं तो शाता आत्मा हूँ जो स्वसवेदन के द्वारा जाना जाता है; अधात् इस प्रकार भावना में निरन्तर लीन मुनियों में ही चरित्र पाया जाता है । आत्मा को जान लेने के बाद जो उसमें तल्लीनता बढ़ती है उसी का नाम पस्तुतः परित्र है । यशोविजय जी का कहना है कि ज्ञान में जो सम्यकत्व का गुण है यह धारण के बिना सम्पन्न नहीं होता। सच्चरित्र के पालन से ही ज्ञान में सम्यक्रम का उदय होता है । ज्ञान किया निरपेक्षा होकर पल का साफ नहीं हो सकता। चारित्र बल से व्यक्ति अपनी साधना में निरन्तर आगे बढ़ता जायेगा।" तात्पर्य यह है कि "स्वभाव* के गृहण और "परभाव को त्याग से ही कमों का क्षय होता है। अकाक के मत में आत्मा को दो चीजें बांधन में डालती हैं एक तो पासना युक्त मिथ्यावान और दूसरे अनेक जन्मों के संगृहीत कमपुण्य । बनमें से पृथ्म अर्थात् वासनायुक्त मिथ्याज्ञान का नाश तो ज्ञान से हो जाता है किन्तु पूर्व जन्मों के अवशिष्ट कर्म तब भी रह जाते हैं जो कि आमा की मुवित में बायक होते हैं। अतः उन कमाँ के क्षय के लिये चरित्र का पालन आवश्यक है 134 नया में कहा गया है कि तप से पूर्वसंचित फमाँ का क्षय होता है। ज्ञान प्रकाशक है, तप शोधक है और संचय मुक्ति करने वाला है । साय ही, ज्ञान, तप और संचय इन तीनों के मिलने पर मोक्ष होता है ऐसा जिन शासन में रहा गया है।35 सी में आगे कहा गया है कि शायोपशमिका ज्ञान के नष्ट हो जाने पर और अनंत मान के उत्पन्न होने पर देवेन्द्र और दानपेन्द्र जिन पर की पूषा करते हैं 16 नयचक में कहा गया है कि परित्र से युक्त्त जीव में परम तारण्य रूप मोक्ष पाया जाता है और यह परिन निरन्तर भावना में लीन मुनि तमदाय में
SR No.010238
Book TitleJain Gyan Mimansa aur Samakalin Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAlpana Agrawal
PublisherIlahabad University
Publication Year1987
Total Pages183
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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